रविवार, 28 फ़रवरी 2010
सदा आनंद रहे एहि द्वारे
जुम्मन मियां हमारे गांव में गंगा जमुनी तहजीब के जीते जागते, चलते फिरते, बोलते चालते प्रतीक हैं। बाइस हजार की आबादी में जुम्मन खां का इकलौता मुस्लिम परिवार है। ईद हो, मोहर्रम हो, होली हो, दीवाली हो समूचा गांव जुम्मन मियां के साथ ही मनाता है। वैसे तो उनकी ढेर सारी खूबियां हैं, लेकिन उनमें जो सबसे बडी खूबी है और जिसके कारण जवार पथार में वह पहचाने जाते हैं, वह यह है कि जुम्मन खां हमारे गांव के ब्यास हैं। हमारे बलिया और बिहार के पडोसी जिलों में ब्यास उसे कहते हैं, जो गौनिहारों की टीम का नेतृत्व करता है।
उनको रामायण, महाभारत कंठस्थ है। उन्होंने इन दोनों पुराणों की रचना लोकधुनों और फिल्मी धुनों में कर रखी है। उन्होंने किसी भी नामचीन उस्ताद से बाकायदा कोई तालीम नहीं ली है, लेकिन स्वर और लय की उनकी गजब की समझ है। तभी तो आसपास के जिलों के ब्यासों में उनकी बहुत इज्जत है। बताते हैं कि बचपन से ही जुम्मन मियां गौनिहारों की टोली में जाने लगे थे। इसके लिए उनके अब्बा हुजूर ने कई बार कस के ठुकाई की, लेकिन वह कहां मानने वाले थे। गौनिहारों की संगत में बैठते बैठते वह अब इतने बडे ब्यास बन गए।
आज रात में सीताराम चाचा के यहां होरी गाने के लिए गौनिहारों का जुटान है। सुबह से ही बैठने के लिए दरी कालीन का इंतजाम हो रहा है। लल्लू लोहार के यहां से चार चार गैस लाइटें मंगाया गया है। चाचा ने अपनी तीन भैसों का तकरीबन अठारह लीटर दूध गौनिहारों के लिए सुबह ही रखवा लिया। जो चाय पीने का शौकीन है उसे चाय नहीं तो बाकी सबको आज भर भर के दूध दिया जाएगा। यही नहीं गौनिहारों के लिए खैनी, बीडी, सिगरेट और पान का भी इंतजाम है। सुनने में आया है कि चच्ची मालपुआ भी बनवा रही हैं। जब भी सीताराम चाचा के यहां गौनिहारों की बैठकी होती है, खाने खिलाने का खूब इंतजाम रहता है।
अंधेरा होने से पहले ही लल्लू ने गैस लाइटों को जला दिया। जंग भाई ने बलेसर और नारद के साथ गुडडू को यह ताकीद कर रखा है कि इंतजाम में कोई कमी नहीं रह जाए, नहीं तो सीताराम चाचा के कोप से उनको कोई नहीं बचा पाएगा। आठ बजते बजते गौनिहारों और सुनने वालों से उनका दरवाजा भर गया। दरी और जाजिम कम पड गए तो बाकी जगहों पर पुआल डाल दिया गया। गौनिहारों के दल ने पहले ढोलक, झाल, झांझ, हारमोनियम और तासे को बजाकर गीत गवनई का माहौल बनाया। जुम्मन मियां ने सबसे पहले सरस्वती वंदना की और फिर परंपरागत होरी ...शिवशंकर खेले फाग गौरा संग लियो ... से वो ताल जमाया कि जो कभी इन गौनिहारों के साथ गाते नहीं थे वो भी अपने दोनों हाथों को ही झाल के मानिंद बजाकर झूमने लगे।
हमारे यहां होरी दो तरह से गाई जाती है। एक बैठकी होती है, जिसे भोजपुरी संगीत साहित्य में धमार कहते हैं। जुम्मन मियां अपनी मंउली के साथ एक पर एक धमार ... उडेला अबीर गुलाल लाल भइल असमानवा..., रसिया घनश्याम होरी खेले गोपियन से ..., मोरा फुलगेनवा के साध हो आहे आजु श्याम मोहे बगिया लगा द..., अंखिया भइल लाले लाल एक नींद सोवे द बलमुआ... गाकर माहौल को पूरी तरह से होरीमय कर दिया। होरी के इन गानों को सुनकर पता चलता है कि भोजपुरी संगीत कितनी समृद्ध है। गजब का सुर और ताल के आरोह अवरोह के रंग में सभी गौनिहार और सुनने वाले डूब उतरा रहे थे। तभी स्रोता दीर्घा से फरमाइश आई कि ब्यास जी अब झूमर सुनने का मन कर रहा है। एकआध झूमर हो जाए।
धमार और झूमर इन दो विधाओं में ही आमतौर पर हमारे यहां होरी गाई जाती है। हालांकि कई स्वर पंडितों ने ठुमरी में भी होरी को गाकर इस भोजपुरी लोक संगीत को और समृद्ध किया है। खैर झूमर सुनने की सबके अंदर बेताबी देखी जा सकती है। जुम्मन मियां ने झूमर शुरू करने से पहले उसकी भूमिका तैयार करते हुए बोले भाइयों, हमारे किसी भी त्योहार में सबकी भलाई और कल्याण की ही कामना है। हर दरवाजे जाकर ... सदा आनंद रहे एहि द्वारे मोहन खेले होरी ... भी इसी तरह की एक कामना है।
अब तो होरी के इस मनभावन त्योहार को भी जाति, धर्म के खांचे में रखकर देखा जाने लगा है। पर्व तो पर्व होते हैं, उनको जातिगत या सांप्रदायिक आग में डालने का नुकसान किसको होता है। कभी आपने विचार किया है कि इस आग में किसका घर जलता है, सुधी स्रोताओं इस आग में उन लोगों का ही घर जलता है जिनके घर झोंपडी के होते हैं। कुछ लोगों द्वारा हमारे सौहार्द की राह में डाले गए कांटे उनको चुभते हैं जिनके पैरों में जूते चप्पल नहीं होते। इसलिए मेरे भाइयों अपने पर्वो को सांप्रदायिक और जाति के खांचे में कुछ सिरफिरों के डालने की कोशिशों को नाकाम कर दें। जुम्मन खां के इतना बोलते ही चारो तरफ से तालियों की गुंज सुनाई देने लगी। जुम्मन मियां अपने प्रति अपने गांव वालों के इस प्यार को देखकर अभिभूत हुए बिना नहीं रह सके। और फिर झूमर ... सदा आनंद रहे एहि द्वारे मोहन खेले होरी ... गाकर ऐसी समां बाधी कि कुछ लोग तो भीड में ही खडा होकर नाचने लगे।
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असली फगुआ का वर्णन पढ़कर आँखों के सामने पुराने दृश्य उभरने लगे हैं . तीन सालों से दिल्ली के घुटन में फगुआ तो लगभग भूल सा गया था .
जवाब देंहटाएंहिंदी चिट्ठाकारी की सरस और रहस्यमई दुनिया में राज-समाज और जन की आवाज "जनोक्ति "आपके इस सुन्दर चिट्ठे का स्वागत करता है . . चिट्ठे की सार्थकता को बनाये रखें . नीचे लिंक दिए गये हैं . http://www.janokti.com/ , साथ हीं जनोक्ति द्वारा संचालित एग्रीगेटर " ब्लॉग समाचार " से भी अपने ब्लॉग को अवश्य जोड़ें .
ये रंग भरा त्यौहार, चलो हम होली खेलें
जवाब देंहटाएंप्रीत की बहे बयार, चलो हम होली खेलें.
पाले जितने द्वेष, चलो उनको बिसरा दें,
खुशी की हो बौछार,चलो हम होली खेलें.
आप एवं आपके परिवार को होली मुबारक.
-समीर लाल ’समीर’
Holi beet gayu aur holi ki shubhkamnaye bhu. But ye blog holi ki har pal yaad dulata rahega
जवाब देंहटाएंना पियवा मोर आतर-पातर
जवाब देंहटाएंनाहिं पिया मोर चोर हो।
मोरा बलमुआ मधुइया के मातल
गईलें सड़किया पर सोय हो
बाबू दरोगा जी कौने गुनहियां बान्हल पियवा मोर
बाबू दरोगा जी.....
इस पोस्ट ने उनके एक फगुआ की याद दिला दी जिनके पांव में जूते-चप्पल अब भी नहीं होते।