शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

पंडिताइन उल्‍टा बहती हैं


बीजी पांडे आज सुबह चाचा की कचहरी में गैरहाजिर थे। बलेसर, जुम्‍मन और नारद तो यह मानकर बैठे थे कि चच्‍ची की चाय से पहले बीजी जरूर आ जाएंगे। क्‍योंकि पंद्रह साल पहले जिस दिन से सीताराम चाचा गांव में स्‍थाई रूप से रहने आए तब से लेकर आज तक बिना नागा उनके चारों चकोरों ने सुबह की चाय चच्‍ची के हाथ की पी है। चच्‍ची ने हाथ में केतली लिये घर के दरवाजे पर आकर नारद को हाक लगाया। चच्‍ची ने नारद के हाथ में केतली के साथ साथ पांच प्‍याले भी थमाए। नारद ने रोज की तरह पांचो प्‍यालों को लबालब चाय से भरा और एक एक कर चाचा, जुम्‍मन और बलेसर को देने के बाद एक प्‍याला खुद ले लिया।

बीजी का पांचवा प्‍याला आज उदास था। उसको पीने वाला आज नहीं था। उसमें से भाप निकल रहा था। जाडा, गर्मी, बरसात ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी एक के बगैर वहां चाय की महफिल जमी हो। चाचा ने बलेसर से पूछा, तुम तो बीजी के घर से ही होकर आती हो। अक्‍सर तुम दोनों साथ ही आती हो, तो आज क्‍या हो गया कि बीजी पंडित नहीं आई। बलेसर ने बताया कि आते समय महराज जी (हमारे गांव में पंडिजी को महराज जी कहा जाता है) दिखाई नहीं दिये, तो मैने सोचा आज जल्‍दी हाथ मुंह धोकर कउडा पहुंच गए होंगे।

चाचा ने बारी बारी से जुम्‍मन और नारद से भी तस्‍दीक किया कि पंडित के बारे में तुम लोगों को कुछ जानकारी है कि नहीं, लेकिन दोनों ने नावाकिफी जाहिर कर दी। चाचा के माथे की सलवटें गहरी हो गईं। ऐसा तो नहीं इस भीषण ठंड में पंडित बीमार पड गई हो। चाय का सुडुक्‍का मारने में मगन नारद को चाचा का आदेश मिला कि वह चाय खत्‍म होते ही बीजी के घर जाकर उनका हाल चाल ले और अगर चलने फिरने लायक हों तो साथ में लेकर आए।
नारद जितना चाय पी चुका था उसे ही अपना भाग्‍य मानकर चाचा के आदेश का पालन किया। चाचा के घर के पिछवाडे चौथा घर बीजी पंडित का है। वह जब उनके दरवाजे पहुंचा तो वहां महराज जी को नहीं पाकर घर के भीतर हांक लगाया। महराज जी.. महराज जी... ओ महराज जी....। अंदर से कोई जवाब नहीं मिला। नाई और पुरोहित का रिश्‍ता है नारद और बीजी में। इसलिए उसका उनके घर के अंदर भी आना जाना होता था। नारद सोचने लगा,  इससे पहले तो एक बार हांक लगाने पर महराज जी के नहीं होने पर पंडिताइन आ जाती थीं, आज वो भी नहीं आ रही हैं।

चाचा के अंदेशे पर नारद को अब भरोसा होने लगा। वह यह मानकर घर के अंदर खांसते खखारते पहुंच गया कि महराज जी ने खाट पकड ली है। उसने देखा कि पंडिताइन चुल्‍हे पर खाना बना रही हैं और उसके अंदर आ जाने से अनजान होने का स्‍वांग कर रही हैं। उसके हाथ हठात उठ गए और वह पंडिताइन की पैलग्‍गी (प्रणाम) करने के बाद पूछा कि महराज जी दिखाई नहीं दे रहे हैं। उनका मिजाज दुरूस्‍त नहीं है क्‍या। पंडिताइन ने कुछ जवाब नहीं दिया, बस हाथ के इशारे से बता दिया कि पंडित उस कमरे में हैं। नारद बिना देर किये उस कमरे में दाखिल हो गया। देखा बीजी बहुत उदास मन से खैनी मल रहे हैं। वाह महराज जी अकेले अकेले खैनी बन रही है। चेहरा उतरा हुआ है। बात क्‍या है, मिजाज हाथ में है कि नहीं। चाचा आपके नहीं आने से बहुत चिन्तित और परेशान हैं। आपको बुलाया है, जल्‍दी चलिए।

खैनी का एक बीडा नारद की ओर बढाकर बाकी अपने होठों के हवाले कर बीजी धीरे धीरे बिछौना से उतरे और बिना कुछ बोले चल पडे। उनके पीछे पीछे नारद भी चला। बस कुछ ही क्षण में दोनों चाचा के कउडा पहुंच गए। उसको अचंभा हो रहा था कि बिना मतलब बोलने वाले महराज जी को आज हो क्‍या गया है। रास्‍ते में भी कुछ नहीं बोले। बीजी को आते देख चाचा खडे हो गए और पास आने पर उनको ऐसे गले लगाया जैसे बहुत दिनों का बिछुडा कोई अजीज मिल गया हो। यही चाचा की खूबी भी है। वह गांव के हर आदमी से बहुत अपनापा रखते हैं। किसी को भी गैर नहीं समझते। सबके सुख दुख में ऐसे शरीक होते हैं जैसे वो सारा सुख दुख उन्‍हीं का है।
बीजी का उतरा चेहरा देखते ही चाचा यह जानने के लिए परेशान हो गए कि आखिर माजरा क्‍या है। ऐ पंडित तुम्‍हारे चेहरे पर बारह क्‍यों बज रही है। बिना बात के हंसने वाली और बिना लाग लपेट बोलने वाली पंडित तुम्‍हारे मुंह पर किसने पहरा लगा दिया है। बीजी की आंखों में आंसू भर आए। धीरे से बोले पंडिताइन से तंग आ गया हूं। बात बेबात झगडा करने पर उतारू रहती है। मन बहुत बेकल (बेचैन) हो रहा है। मन कर रहा है गांव छोडकर कहीं दूर चला जाउं।

चाचा को लग गया मामला गंभीर है। चाचा के अनुभव बता रहे थे कि पंडित और पंडिताइन में जरूर कुछ लंबा लफडा हुआ है। इसका भी इलाज चाचा के पास है। अक्‍सर जब माहौल बोझिल होता है तो चाचा उसको हल्‍का करने के लिए अपने पिटारे से एक कहानी निकालकर सुनाने बैठ जाते हैं। अब तक उनकी जितनी भी कहानियां हमने सुनी है उसमें रोचकता के साथ साथ एक बडा संदेश भी होता है। चाचा ने कहा क्‍या पंडित इतनी सी बात पर तुम दुखी हुए जा रहे हो। दुनिया में तुमसे भी बडे दुखियारे हैं। एक उेसा ही वाकया सुनाओ रहा हूं, सुनो ...
एक पंडित जी थे। वह अपनी पंडिताइन से बहुत दुखी रहते थे। क्‍योंकि पंडिताइन उनका एक भी कहा नहीं मानती थीं। पंडित जी अगर पूरब को पूरब कहते तो वह कहती आपको कुछ नहीं मालूम यह पश्चिम है। सूरज तो उधर से उगता है। अगर पंडित जी रात को रात कहते तो वह कहती इतना उजाला है और आप कह रहे हैं रात है। पंडित जी को जब कुछ बढिया खाने का मन करता तो पंडिताइन मोटी रोटी और सूखी सब्‍जी परोस देती। यानी पंडिताइन पंडित जी जो भी कहते या करते थे उसका उलटा ही पंडिताइन कहती और करती थीं।

रोज रोज इन बातों को लेकर दोनों में झगडा होता रहता था। पंडिताइन अलग से रोज ताना देती कि अब तो आप भिक्षा मांगने से भी जी चुराने लगे हैं। आपके हाथ में बरक्‍कत ही नहीं है। पंडित जी बहुत दुखी हो गए थे। थक हारकर पंडित जी अपने एक दोस्‍त के पास गए और बोले, यार पंडिताइन ने मेरे जीवन को नरक बना दिया है। अत्‍याचार पर अत्‍याचार किये जा ही है। बताओ मैं क्‍या करूं। उसने कहा कि तुम भी पंडिताइन की तरह हो जाओ। उन्‍हीं के फार्मूले पर काम करो। सब कुछ उल्‍टा बोलो और करो। जब पूडी खाने का मन करे तो सत्‍तू मांगो। दिन को रात कहो। उत्‍तर को दक्षिण कहो। इससे सारी चीजें अपने आप ठीक हो जाएंगी।

पंडित जी ने वही फार्मूला अख्तियार किया। शाम को आजमाने के लिए बोले पंडिताइन आज रात में मैं सत्‍तू खाउंगा। पंडिताइन ने कहा आप तो हमारी नाक कटवा के दम लेंगे। लोग सुनेंगे कि पंडिताइन रात में पंडित जी को सत्‍तू खिलाती है, तो क्‍या कहेंगे। आज पुडी खीर बनाएंगे और आपको तबियत से जिमाएंगे। मित्र से मिला फंडा काम आया। रात को पुडी खीर उडाने के बाद पंडित जी को रात में चैन की नींद आई। सुबह उठते ही नहा धोकर पंडित जी भिक्षाटन के लिए तैयार हुए। पंडिताइन ने उन्‍हें रोक दिया। पंडित जी आप कुछ दिन भिक्षाटन नहीं भी करेंगे तो चलेगा। घर में सब कुछ भरा पडा है।

पंडित के मन में गुब्‍बारे फूटने लगे। अब उनके दिन रात ठीक से कटने लगे। कुछ दिन बाद पंडिताइन को लगा कि क्‍या बात है अब पंडित मेरी हर बात को मानने लगे हैं। अब किसी बात पर झगडा भी नहीं करते। यह उनकी कोई चाल तो नहीं। पंडिताइन को पंडित का सुख कैसे सहन होता। वह फिर पुराने ढर्रे पर आ गईं। पंडित के लिए वही चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात वाली स्थिति हो गई।
फिर वह अपने मित्र के पास गए। मित्र ने कहा पंडित जी हरिद्वार में महाकुंभ लगा है। जाओ पंडिताइन को स्‍नान करा लाओ। हो सकता है कि गंगा जी के पवित्र जल से उनका मन भी निर्मल हो जाए। पंडित जी घर पहुंचे और पंडिताइन से बोले, सुनती हो हरिद्वार में महाकुंभ लगा है। मैं सोच रहा हूं अकेले जाकर स्‍नान कर आउं। पंडिताइन गुस्‍से से आग बबूला हो गईं। सारा पूण्‍य अकेले अकेल के लिए है और सारा पाप मेरे हिस्‍से। बहुत भाग्‍य से तीर्थ पर जाने का अवसर मिलता है। मैं भी चलूंगी आपके साथ।

पंडित तो यही चाहते थे। शायद साथ चलने का उनका प्रस्‍ताव होता तो पंडिताइन जाती भी नहीं। तैयारी शुरू हो गई और कुछ दिन बाद दोनों हरिद्वार तीर्थयात्रा पर निकल गए। मकर संक्रान्ति को पहला स्‍नान था। पंडिताइन ने कहा चार बजे भोर में ही हम लोग गंगा के किनारे पहुंच जाएंगे, नहीं तो बाद में बहुत भीड हो जाएगी।

तय समय पर दोनों गंगा किनारे पहुंचे और डुबकी लगाने के लिए गंगा में उतरने के लिए चले। पंडित ने कहा, पंडिताइन किनारे ही नहा लो अंदर नदी बहुत गहरी है। पंडित से यहीं भूल हो गई। पंडिताइन कहां उनकी बात मानने वाली। बोलीं, किनारे नहाएं हमारे दुश्‍मन। सारा पाप किनारे आकर लग गया है और आप कह रहे हैं मैं पाप में डुबकी लगाउं। यही बोलते बोलते पंडिताइन अंदर गईं और गंगा के तेज प्रवाह में बह गईं।

प्रवाह पूरब की तरफ था और पंडित जी पश्चिम की ओर उनको पकडने दौडे। लोगों ने कहा अरे पंडित जी धारा तो पूरब की ओर है और आप पश्चिम की ओर उनको पकडने जा रहे हैं। पंडित जी ने कहा पश्चिम की ओर इसलिए जा रहा हूं कि हमारी पंडिताइन उलटा बहती हैं। इस कहानी का मैसेज यह है कि जो अपनों का कहा नहीं मानता उसका हस्र ऐसा ही होता है।
चाचा की कहानी पर सभी हंसने लगे, लेकिन बीजी के चेहरे पर अब भी उदासी का ही डेरा था। चाचा ने अपना प्रयास विफल होते देख बीजी से बोले, पंडित दुनिया में तमाम देशों की बडी बडी समस्‍याएं बातचीत से हल हो जाती हैं। उनके आगे तुम्‍हारी समस्‍या तो बहुत छोटी है। जाओ पंडिताइन को मेरी यह कहानी सुनाओ और उनसे बात करो तुम्‍हारी सारी समस्‍या अपने आप खत्‍म हो जाएगी। बीजी पांडेय ने चाचा के नुस्‍खे पर अमल किया और फिर उनकी पारिवारिक जीवन पटरी पर चल निकला।

रविवार, 24 जनवरी 2010

तीन कुत्‍ते


 
हमारे गांव में तकरीबन बाइस हजार इंसान हैं। हर इंसान की अपनी एक कहानी है। अगर एक-एक की कहानी एक दिन में पूरा करूं तो भी इसमें साठ साल लग जाएंगे। ...और ऐसा इस जन्‍म में कर पाना मुझे संभव नहीं लगता। वैसे हमारे सीतराम चाचा के पास कहानियों का इतना बडा जखीरा है कि उसी को समेटने बैठूं और करीने से समेट ले जाउं, तो इतना ही हमारे लिए काफी है।

चाचा की उनके हर उम्र की अलग और दिलचस्‍प कहानी है। जवानी के दिनों में हमारे सीताराम चाचा भी आज के युवा की तरह ही थे, जो हकीकत में कम और सपनों में ज्‍यादा जिया करते थे। ये ऐसे सपने होते हैं जो खुली आंखों से देखे जाते हैं। यह अलग बात है कि चाचा का जमाना कुछ और था। तब जीवन की रफ़तार इतनी तेज नहीं थी। तब कम्‍यूटर, मोबाइल, फर्राटा भरने वाली तेज गाडियों जैसे तेज रफ़तार के आधुनतम यंत्र भी नहीं थे। फिर भी जुम्‍मन, बीजी, बलेसर और नारद नामक चार चकोरों का मानना है कि उस समय भी इंसानी फितरत आज की तरह की ही थी। बातों का गोलमोल जवाब तब भी मिलता था और आज भी मिलता है।

बीजी पंडित को इस विषय का ज्ञान कुछ ज्‍यादा ही है। उन्‍होंने साधिकार बताया कि यह परंपरा बहुत ही पुरानी है। चंद्रगुप्‍त के राजगुरु चाणक्‍य से जब कोई पूछता आचार्य जी आप कहां जा रहे हैं, तो उनका जवाब होता था, अभी आ रहा हूं। इस परंपरा के सबसे बडे वाहक के रूप में चाणक्‍य का ही नाम लिया जा सकता है, क्‍योंकि चाणक्‍य यह नहीं बताते थे कि वो कहां जा रहे हैं, अलबत्‍ता इस बात का आश्‍वासन दे जाते थे कि जा कहीं भी रहा हूं, लेकिन लौट कर जरूर आउंगा।

जुम्‍मन ने कहा वैसे आमतौर पर ऐसी फितरत नेताओं की होती है। जो नेता बातों को गोल करने में जितना माहिर होता है, वह आज का सबसे बडा नेता है। इनको हमारे कस्‍बाई लोग श्रूड पॉलिटिशियन कहते हैं। चाचा का विचार इससे एक दम अलहदा है। उनका अपार अनुभव उनके विचार को और ताकत देता है। गोल मोल बातों पर उनके चार चकोरों की चर्चा और आगे बढने से पहले ही रूक गई।

सीताराम चाचा ने हस्‍तक्षेप किया। बिना नाडे के पैजामा हो तुम लोग। बे सिर पैर की बात करते हो। कितना तजुर्बा है तुम लोगों के पास। मेरे सामने अभी तुम चारों बच्‍चे हो। बात गोल करने की फितरत केवल इंसानों में ही नहीं है। बेचारे नेता तो बिना वजह बदनाम हैं। बातें गोल तो कुत्‍ते भी करते हैं। इस बारे में मुझे एक कहानी याद आती है ...


मोतिया, मोतीसरी और जग्‍गू तीन कुत्‍ते थे। जग्‍गू मोतिया और मोतीसरी का बेटा था। जाहिर है मोतिया सबसे तगडा, मोतीसरी थोडी दुबली और जग्‍गू सबसे कमजोर था। बहुत दिनों से गांव में कोई शादी नहीं हो रही थी। कोई मर भी नहीं रहा था। इसलिए बहुत दिनों से भोज-भात के लाले पडे थे। तीनों कुत्‍तों को सुस्‍वाद खाना खाए अरसा हो गया था। उनकी जुबान फीकी होने लगी थी। हालात यहां तक पहुंच गए थे कि उनके भौंकने में भी कुत्‍तागिरी कम आ पा रही थी।

अचानक एक दिन शाम को बगल वाले गांव से बैंड बाजे की आवाज आई। तीनों को लग गया पडोस में आज कोई भोज-भात है। उनको उस गांव के कुत्‍तों से ईर्श्‍या होने लगी। तीनों ने कहा, आज तो उस गांव के कुत्‍ते दावत उडाएंगे और हम अभागे ऐसे ही रह जाएंगे। जैसे-जैसे शाम ढलने लगी तीनों के मुंह से लार बेजार होकर टपकने लगी। सबसे बडा होने के नाते मोतिया ने फैसला किया कि आज कुछ भी हो जाए हम लोग भी दावत उडाने चलेंगे। अब हमसे बर्दास्‍त नहीं होता। लोग यह मानने लगे हैं कि फीके मुंह भौंकने से हमारी कुत्‍तागिरी पर बटटा लग रहा है। वहां चलेंगे तो ना ना प्रकार के व्‍यंजन का भोग लगेगा। हमारे गांव में निकट भविष्‍य में किसी दावत की संभावना दूर दूर तक नहीं दिखती। घर के मुखिया का फैसला था, सो तीनों उस गांव की ओर कूच कर गए।

जब उस गांव की सीमा पर पहुंचे तो तीनों के पांव अपने आप ठिठक गए। कुत्‍तों का भी उसूल है। दूसरे गांव के कुत्‍तों की सीमा में जाना अपने आप को दुश्‍मनों के चक्रव्‍यूह में अपने को झोंक देने से कम नहीं है। अपने घर में कुत्‍ते भी शेर होते हैं, इसका भान जग्‍गू को तो कम मोतिया और मोतिसरी को ठीक से हैं। तीनों के एक साथ दूसरे गांव में की सीमा में घुसते ही दूर से दिखाई दे जाने का खतरा था। इसलिए मोतिया ने कहा कि हम एक एक करके दावत उडाने जाएंगे। तय हुआ कि सबसे पहले जग्‍गू को भेजा जाएगा। अगर रिस्‍पांस ठीक रहा तो उसके बाद मोतिसरी और आखिर में मोतिया दावत उडाने जाएगा।

त‍य योजना पर फौरन अमल किया गया और जग्‍गू को मौका ए दावत पर रवाना कर दिया गया। भगवान का नाम लेकर जग्‍गू चला। लेकिन वह अंदर ही अंदर कांप रहा था। अगर दुश्‍मन गांव के कुत्‍तों ने मुझे देख लिया तो मेरी छोटी जान के लिए यह सौदा बहुत महंगा पडेगा। अगर उनके घेरे में आ गया तो पता नहीं कहां कहां से नोचेंगे, मेरा बाप भी नहीं गिन पाएगा। खैर, दूसरे गांव में दावत उडाने के रिस्‍क भी तो हैं। हमारी बिरादरी के लिए यही एउवेंचर है कि दूसरों के घर में घुसकर खाओ और सही सलामत अपने ठिकाने पहुंच जाओ।

इसी उधेड बुन में जग्‍गू दावते वलीमा वाली जगह पर पहुंच गया। वहां पहुच कर भगवान को लाख लाख लाख शुक्रिया अदा किया कि रास्‍ते में किसी दुश्‍मन ने मुझे नहीं देखा। चारो तरफ से कनात घिरी हुई थी। अंदर चहल पहल थी। घुसने का कोई रास्‍ता नहीं सूझ रहा था। वह कनात का चक्‍कर काटने लगा। एक जगह उसको कनात में एक सुराख दिखाई दी। सोचा मेरी काया छोटी है इसमें से निकल सकता हूं। पहली बार इस तरह के खतरनाक अभियान पर निकला था। एक सामान्‍य कुत्‍ता जितनी एहतियात बरत सकता है वो सब जग्‍गू कर रहा था। एहतियातन एक बार सूराख में सिर घुसाकर पहले उसने हालात का जायजा लिया। उसको जायजा लेते उस इंसान ने देख लिया, जिसको कुत्‍तों को कनात के भीतर नहीं फटकने देने की जिम्‍मेदारी दी गई थी।

गांव में कहीं भी भोज का आयोजन होता वहां कुत्‍तों से रख्‍ावाली की जिम्‍मेदारी उसे ही निभानी पडती थी। लोग बताते हैं कि उसने कुत्‍तों के स्‍वभाव पर शोध किया था। जग्‍गू के झरोखे से जायजा लेने के बाद वह समझ गया कि वह कुत्‍ता फिर उसी झरोखे से घुसने की कोशिश करेगा। हाथ में एक डंडा लेकर वह झरोखे के पास मोर्चा ले लिया। जग्‍गू तो निश्‍िचन्‍त था कि उसके यहां होने की न तो किसी कुत्‍ते को और न ही किसी इंसान को भनक है। वह उन्‍मुक्‍त होकर ज्‍यों ही अपना सिर कनात के झरोखे में डाला अचानक एक डंडा बहुत जोर से उसके सिर पर पडा... फटाक...।

अचानक आई इस विपदा का उसे इलहाम तक नहीं था। चोट बहुत तेज थी। जग्‍गू वहां से कांय कांय करते भागा। वह जब अपने मां बाप के पास पहुंचा तो दोनों ने उसे घेर लिया। पूछा क्‍या हुआ बेटा। जग्‍गू ने कहा मुझे तो वहां जाते ही मिल गया।

इस सकारात्‍मक जवाब को सुन मोतिसरी की बांछे खिल गईं। उसने सोचा इतना छोटा पिल्‍ला जब दावत उडा सकता है तो मुझे कौन रोक सकता है। मन ही मन पुडी पुलाव के स्‍वाद को याद कर वह मोतिया और जग्‍गू से इजाजत लेकर दावत स्‍थल के लिए रवाना हो गई।

इस तरह के दावतों का बहुत अनुभव था उसे। लंबी लंबी छलांगे मारती हुई वह वहां पहुंच गई। उसको रास्‍ते में उस गांव का कोई कुत्‍ता भी नहीं मिला। इसलिए मन से बचा खुचा भय भी जाता रहा। उसने सोचा कि क्‍यों न जहां भोजन तैयार हो रहा है उधर ही चलकर दावत उडा लिया जाए।

जहां पुडी तली जा रही थी, वह वहीं पहुंच गई। हलवाई ने देखा एक कुत्‍ता भोजनालय में घुस आया है। किसी ने देख लिया तो हमारा बनाया खाना कोई नहीं खएगा। उस कुत्‍ते को जल्‍दी से भगाने की गरज से पुडी के खौलते तेल को एक कलुछे से उसके उपर फेंक दिया। तेल से जली मोतिसरी कांय कांय करते वहां से भागी।

रास्‍ते में उसने सोचा कि अगर मैने सही बात बता दिया तो जग्‍गू और मोतिया मेरे उपर खूब हंसेंगे। एक छोटा सा बच्‍चा दावत उडाकर आ गया और इनको देखो एक पूडी तक के दर्शन नहीं हुए। वह कांय कांय करना बंद कर अचानक चुप हो गई। जब वह ठिकाने पर पहुंची तो दोनों ने पूछा क्‍या हुआ। उसने बताया कि मुझे तो गरम गरम मिल गया।

इतना सुनना था कि मोतिया मगन होकर बिना दोनों को कुछ बताये दावत उडाने चल पडा। उसकी चाल में गजब का आत्‍मविश्‍वास दिख रहा था। वैसे भी शरीर से भरा पूरा था, इसलिए उसकी चाल को देखकर यह लग रहा था कि कुत्‍ता नहीं शेर जा रहा है। जब वह दावत वाली जगह पर पहुंचा तो पहले सीना चौडाकर उस पूरे जगह का मुआयना किया। शरीर से हट़टा कटटा होने के नाते उसको दो चार पिददीनुमा कुत्‍तों का भय भी नहीं सता रहा था।

पूरे दावत स्‍थल का मुआयना करने के बाद उसे लगा कि इधर उधर जाने से बेहतर है भंडार घर में चलकर ही लजीज व्‍यंजन का स्‍वाद लिया जाय। कुत्‍ते का स्‍वभाव, जब रोक टोक नहीं हुआ तो मनमानी पर उतर आया और घुस गया भंडार घर में।

डंडे वाला कमाल का था। उसकी निगाह से किसी कुत्‍ते का बच पाना नामुमकिन था। उसने एक गबदू (भरे पूरे शरीर वाले) कुत्‍ते को भंडार में घुसते देख लिया। डंडा लेकर मोतिया के पीछे भंडार घर में घुसकर दरवाजा बंद कर लिया। अंदर पहुंचते ही मोतिया पर डंडे का प्रहार शुरू हो गया।

मोतिया डंडे की मार खाकर कभी पूडी पर गिर रहा था तो कभी सब्‍जी पर। एक डंडा तो इतना जोर से पडा कि वह रायते वाले बडे से भगौने में जा गिरा। इसी बीच खाना खिलाने वाले कोई सज्‍जन सब्‍जी लेने आ गये। दरवाजा ज्‍यों ही खुला मोतिया रास्‍ता पाकर तुरंत कांय कांय करते भाग निकला।

जब वह मोतिसरी और जग्‍गू के पास पहुंचा तो दोनों ने पूछा कि क्‍या हुआ। उसने सोचा कि सही बात अगर बता दिया तो इन दोनों के सामने उसकी नाक कट जाएगी। उसने अपनी बात में रूआब लाते हुए बताया, मुझे तो आने ही नहीं दे रहे थे। कोई कह रहा था, पूडी खाओ, कोई कह रहा था सब्‍जी खाओ। एक सज्‍जन ने तो इतना रायता खिला दिया कि मेरे शरीर पर भी फैल गया। तुम लोग देख नहीं रहे हो।

मोतिया इतना पिटा था कि अंदर से उसे किसी और खतरे का अहसास हो रहा था। उसने कहा, अब जल्‍दी से अपने गांव भाग चलो। मुझे लगता है कि हमारे आने की खबर दुश्‍मन गांव के कुत्‍तों को हो गई है। दोनों भी तो जल्‍दी से अपने गांव पहुंचना चाह रहे थे। बिना खाए मन में ही अपने शरीर पर इंसानों के ढाये सितम को याद करते तीनों अपने गांव की ओर चल पडे।

सीताराम चाचा ने कहानी खत्‍म कर जुम्‍मन मियां, बीजी पांडेय, नारद नाई और बलेसर धोबी की ओर मुखातिब होकर बोले। देख लिया बच्‍चों। कुत्‍ते भी गोल मोल जवाब देते हैं। यह फितरत केवल इंसानों में नहीं है। इतनी लंबी कहानी के दौरान बीजी पंडित को कई बार खैनी की तलब लगी, लेकिन चाचा को बीच में टोकना ठीक नहीं था। चाचा की वाणी ने ज्‍यों ही विराम लिया बीजी उनसे चुनौटी मांगकर खैनी चूना में तालमेल बिठाने लगे।

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

वाचमैन चाचा

सीताराम चाचा सहारनपुर पेपर मिल के दरवान थे। रिटायर होने के बाद पिछले पंद्रह एक सालों से गांव में रह रहे हैं। सहारनपुर मिल की कालोनी में ही उनका रहवास था। चच्‍ची गांव में रहती थीं। तीज त्‍योहार होली दिवाली में ही चाचा का गांव आना होता था। आज सुबह की चाय खत्‍म होते ही सीताराम चाचा अपने चारो चकोरों की ओर मुखातिब हुए। मराठी मानुस से आहत चाचा अपनी वेदना को कब तक दबाए बैठते। उन्‍होंने अपनी एक आपबीती सुनाने बैठ गए। बातचीत की भाषा समाजवादी है। आप भी सुनिये ...
बात सतहत्‍तर के इमरजेंसी के दौरान की है। एक दिन क्‍या हुआ कि मैं मिल के गेट पर पहरा दे रही थी। एक आदमी बार बार गेट तक आ रही थी और लौट जा रही थी। मुझे लगा कि अपने ही किसी स्‍टाफ का कोई रिश्‍तेदार या भाई होगा। इसलिए उसको बुलाकर पूछी, ऐ भाई किससे मिलना है। वह बोला, साहब हम गांव से आए हैं और मुझे नौकरी की बहुत दरकार है। घर में मेहरी और चार छोटे छोटे छौने ‍हैं। बाढ में खेती तबाह हो गई है। आपकी किरपा हो जाए तो हमारा भला हो जाए। मैं और मेरे बच्‍चे आपको आशिर्वाद देंगे।

उस आदमी की इस उम्‍मीद से मेरा दिमाग चकरा गया। भला एक दरवान की क्‍या औकात कि किसी को मिल में नौकरी दिला दे। एक बार मन हुआ कि उसको सही बात बताकर यहां से चलता कर दूं, लेकिन वह गांव से आया हुआ था और पहली बार मुझे किसी ने साहब कहा था। इसलिए हमने उसे सामने वाली छेदी की चाय की दुकान पर बैठने को बोल दिया और सोचने लगा कि इसका क्‍या इंतजाम करूं।
वैसे तो मिल में कई दरवान थे, लेकिन हम चार लोग ऐसे थे जो अकेले ही रहते थे। खुद ही खाना बनाते थे और बर्तन भी मांजते थे। खाना बनाने और बर्तन धोने को लेकर हम लोगों में अक्‍सर लडाई हो जाता था। कई बार बात इतनी बढ जाती थी कि उस दिन बस ठन ठन गोपाल। छेदी की दुकान के भरोसे दिन कटता था। इसलिए मैने सोची कि इसको मिल में तो नौकरी दिलाने से रहा, क्‍यों न इसे अपने घर ले चलें, वह खाना बनाएगा तो रोज रोज का हम लोगों का आपस का झगडे का टंटा ही खत्‍म हो जाएगा।

मैने अपने भोजन भटटों को बुलाकर इस बारे में राय मश्‍िवरा किया। सबने मेरे विचार को मान लिया। सबके चेहरे खिल गए। रोज रोज के खाना बनाने और बर्मन धोने के झंझट से मुक्ति जो मिल रही थी। सामने छेदी की दुकान पर चाय पी रहे उस आदमी को मैने हांक लगाया तो वह दौडकर मेरे पास आया। जी साहब, हमारी नौकरी की बात पक्‍की हो गई। मैने पहले उसे अपने ओहदे और औकात के बारे में बताया। उसके चेहरे के भाव को देखकर समझा जा सकता था कि मेरे छोटे ओहदे की कसक मुझसे कहीं अधिक उसे थी। फिर भी उसे यह समझाने में कामयाब हो गया कि मेरे चाहने से उसको मिल में नौकरी नहीं मिलने वाली।

मैं बोली, फिर भी तुम्‍हे निराश होने की जरूरत नहीं है। एक उपाय है हमारे पास। ऐसा करो तुम हम चार लोगों के साथ साथ अपने लिए भी खाना बनाना, हम भी खाएंगे तुम भी खाना। जब हम लोगों को पगार मिलेगा तो उसमें से तुमको भी दे देगी। भागते भूत की लंगोटी भली। उसने झट से हमारी बात मान ली। अब हम लोगों का ठाट बढ गया। हर्रे लगे न फिटकिरी, रंग चोखा होई जाए। वह लगी खाना बनाने और हम लोग लगी खाने। अब किसी दिन ठन ठन गोपाल भी नहीं होता था।
एक दिन क्‍या हुआ कि वह मकुनी (सत्‍तू का पराठा) बना रही थी। वह बनाते जा रही थी, हम लोग खाते जा रही थी। पेट तो भर गया था, लेकिन मन नहीं भर रहा था। हमने कहा अब बस एक आखिरी मकुनी दे दो। उसने मुझे जो मकुनी दिया उसके बीच में चेपी (पैबंद)लगा हुआ था। शायद सत्‍तू की अधिकता के कारण वह फट गया होगा। हमको अंदेशा हुई। हमने पूछी इ बताओ तुम्‍हारी जाति क्‍या है। वह डर गई। डर के मारे कांपने लगी। रोते हुए बोली कि साहब हम मोची हैं। मुझे बहुत जोर से हंसी आई। हमने हंसते हुए कहा कि तुम बाहर जूते में चेपी लगाते थे आज रोटी में भी चेपी लगा दी। मेरे और साथी भी मेरे इस बात पर हंसने लगे। वह आगे भी बहुत दिनों तक हम लोगों को खाना बनाकर खिलाता रहा। कभी हम लोगों को लगा ही नहीं कि वह दूसरे गांव घर का आदमी है।
सीताराम चाचा अपनी कहानी को यहीं विराम देते हुए अपने चकोरों से यह जानना चाह रहे थे कि कुछ तुम लोगों के भेजे में घुसा कि नहीं। किसी ने हां में सिर हिलाया तो किसी ने ना में। अरे नामुरादों बात हम कर रहे हैं उस मराठी मानुस राज ठाकरे की, जिसे न तो अपने संविधान में भरोसा है और न अपनी संस्‍कृति पर। हमारा संविधान अखंड भारत की बात करता है। हमारी संस्‍कृति ही विविधता में एकता की है। अगर उस दिन मकुनी में चेपी नहीं लगाता तो हम आज तक नहीं जान पाते कि वह किस जाति विरादरी का था। हमारे लिए तो बस यही काफी था कि वह गांव से आया था और उसे नौकरी की दरकार थी। जब अपने और बच्‍चों के पेट में आग धधकती है तभी कोई बंबई दिल्‍ली जाता है। इस आसरे के साथ कि बंबई और दिल्‍ली उसके ही हैं और वहां के लोग भी हमारे ही तो हैं।

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

सीताराम चाचा और चार चकोरे

हमारे गांव में सीताराम चाचा हैं। वो अकेले मेरे ही चाचा नहीं, बल्कि पूरे गांव के निर्विवाद चाचा हैं। जिनके वो रिश्‍ते में दादा, भाई यहां तक कि मामा, नाना भी लगते हैं उनके भी मुंहबोले चाचा ही हैं। इस मसले पर हमारे गांव में पूरी तरह से अनजाने ही समान आचार संहिता लागू है। खैर, सीताराम चाचा जब अपने रव में होते हैं तो पूरखों के गढे मुहावरों से अपनी बात शुरू करते हैं और इन मुहावरों की छौंक बीच बीच में भी देते रहते हैं। खास बात तो यह है कि वो अपने समाजवादी सोंच के मुताबिक बोलते भी हैं। उनके जज्‍बात जब प्रकट रूप लेते हैं, तो उसमें स्‍त्रीलिंग पुलिंग का भेद नहीं होता। उनकी वाणी में भोजपुरी, हिन्‍दी, उर्दू और अंग्रेजी समग्र समाजवाद का अहसास कराते हैं। कहने का गरज यह कि चाचा रहन सहन, पहनावा, खान पान और स्‍वभावगत समाजवाद के प्रतीक हैं।

जबसे जाडा बढा है सीताराम चाचा कउडा (अलाव) के पास बैठकर अखबार वाले का इंतजार करते हैं। बाइस हजार की आबादी वाले हमारे गांव में सीताराम चाचा कुछ चुनिंदा लोगों में से हैं जो अखबार मंगाते हैं। मुंछो पर ताव देकर जिस तरह से हरकारे से अखबार हाथ में थामते हैं, उससे रोज ही जाहिर हो जाता है कि अखबार मंगाना सबके बूते की बात नहीं है।

सुबह अखबार पढने के लिए और शाम को उनके रोज गढे जाने वाले चोंचले सुनने के लिए उनके दरवाजे मजमा लग जाता हैं। नारद नाई, बलेसर धोबी, जुम्‍मन मियां और बीजी पांडे (ये बीजी शरद जोशी के लापतागंज के करेक्‍टर से थोडा अलग है , क्‍योंकि ये महोदय कभी बिजी होते ही नहीं), तो बिना नागा दोनों जून के दरबारी हैं। दरबारी इसलिए कि उनका सुबह शाम आने का मकसद सीतारामी सुनने या अखबार बांचने का नहीं होता, बल्कि चच्‍ची के हाथ की बनी चाय का सुडुक्‍का मारने और चाचा की चुनौटी (खैनी चूना रखने का पात्र) पर हाथ साफ करने का होता है। इस चाय और खैनी पुराण की बहुत सारी बातें हैं, जिसपर बीच बीच में बातें होती रहेंगी। वादा यह भी है कि सीताराम चाचा के नारद, बलेसर, जुम्‍मन और बीजी नामक चार चकोरों के बारे में भी तफ़सील से बातें होंगी।

आज सुबह का अखबार चाचा के हाथ में आया, तो उनका मिजाज उखड गया। उनके चारो चकोरों ने चाचा के मिजाज को देख सोच लिया कि अखबार वालों ने आज कुछ गुस्‍ताखी जरूर कर दी है। इन अखबार वालों का क्‍या, जो मन में आया छाप दिया। चाचा तो हरकारे को महीने में कौन कहे पंद्रह दिन में ही पेमेंट कर देते हैं, फिर भी इन नामुरादों को चाचा का तनिक भी खयाल नहीं है।

कउडा को घेर कर बैठे इन चकोरों की चिन्‍ता बढने लगी। बार बार उनकी नजर चाचा के चौखट की ओर जा रहा था। रोज की तरह चच्‍ची चाय की केतली लिये नमुदार भी नहीं हो रही थीं। चकोरों ने मन ही मन अखबार वालों को और गाली देना शुरू कर दिया। तभी चच्‍ची की चाय की चासनी वाली आवाज फिजां में फैल गई। ए नारद ये चाय ले जाओ। नारद तपाक से उठे और कब चच्‍ची के हाथ की केतली और कप लेकर कउडा के पास पहुंच गए किसी ने देखा तो किसी ने नहीं देखा।

लबे बाम चाय का कप जब चाचा की ओर बढाया तो उन्‍होंने चाय में कोई दिलचस्‍पी नहीं दिखाई। बोले तुम लोग पीओ हम बाद में पी लेगी। बीजी से रहा नहीं गया। उसने कहा चाचा आज से अखबार मंगाना बंद कीजिए। जो हाथ में पकडे हैं उसे कउडा में डाल दीजिए। जब अखबार वालों को आपकी कोई फिकर नहीं है तो उनका अखबार क्‍यों लेते हैं।

चाचा बोले, नहीं रे इसमें अखबार वालों का क्‍या दोस। हमारे बडे बूढे कहते थे कि कोस कोस पर बानी बदले चार कोस पर पानी। फिर भी हम भारत के लोग एक हैं। लेकिन इ जवन राज ठाकरे है न, उसको यह बात क्‍यों समझ में नहीं आता।