गुरुवार, 21 जनवरी 2010

सीताराम चाचा और चार चकोरे

हमारे गांव में सीताराम चाचा हैं। वो अकेले मेरे ही चाचा नहीं, बल्कि पूरे गांव के निर्विवाद चाचा हैं। जिनके वो रिश्‍ते में दादा, भाई यहां तक कि मामा, नाना भी लगते हैं उनके भी मुंहबोले चाचा ही हैं। इस मसले पर हमारे गांव में पूरी तरह से अनजाने ही समान आचार संहिता लागू है। खैर, सीताराम चाचा जब अपने रव में होते हैं तो पूरखों के गढे मुहावरों से अपनी बात शुरू करते हैं और इन मुहावरों की छौंक बीच बीच में भी देते रहते हैं। खास बात तो यह है कि वो अपने समाजवादी सोंच के मुताबिक बोलते भी हैं। उनके जज्‍बात जब प्रकट रूप लेते हैं, तो उसमें स्‍त्रीलिंग पुलिंग का भेद नहीं होता। उनकी वाणी में भोजपुरी, हिन्‍दी, उर्दू और अंग्रेजी समग्र समाजवाद का अहसास कराते हैं। कहने का गरज यह कि चाचा रहन सहन, पहनावा, खान पान और स्‍वभावगत समाजवाद के प्रतीक हैं।

जबसे जाडा बढा है सीताराम चाचा कउडा (अलाव) के पास बैठकर अखबार वाले का इंतजार करते हैं। बाइस हजार की आबादी वाले हमारे गांव में सीताराम चाचा कुछ चुनिंदा लोगों में से हैं जो अखबार मंगाते हैं। मुंछो पर ताव देकर जिस तरह से हरकारे से अखबार हाथ में थामते हैं, उससे रोज ही जाहिर हो जाता है कि अखबार मंगाना सबके बूते की बात नहीं है।

सुबह अखबार पढने के लिए और शाम को उनके रोज गढे जाने वाले चोंचले सुनने के लिए उनके दरवाजे मजमा लग जाता हैं। नारद नाई, बलेसर धोबी, जुम्‍मन मियां और बीजी पांडे (ये बीजी शरद जोशी के लापतागंज के करेक्‍टर से थोडा अलग है , क्‍योंकि ये महोदय कभी बिजी होते ही नहीं), तो बिना नागा दोनों जून के दरबारी हैं। दरबारी इसलिए कि उनका सुबह शाम आने का मकसद सीतारामी सुनने या अखबार बांचने का नहीं होता, बल्कि चच्‍ची के हाथ की बनी चाय का सुडुक्‍का मारने और चाचा की चुनौटी (खैनी चूना रखने का पात्र) पर हाथ साफ करने का होता है। इस चाय और खैनी पुराण की बहुत सारी बातें हैं, जिसपर बीच बीच में बातें होती रहेंगी। वादा यह भी है कि सीताराम चाचा के नारद, बलेसर, जुम्‍मन और बीजी नामक चार चकोरों के बारे में भी तफ़सील से बातें होंगी।

आज सुबह का अखबार चाचा के हाथ में आया, तो उनका मिजाज उखड गया। उनके चारो चकोरों ने चाचा के मिजाज को देख सोच लिया कि अखबार वालों ने आज कुछ गुस्‍ताखी जरूर कर दी है। इन अखबार वालों का क्‍या, जो मन में आया छाप दिया। चाचा तो हरकारे को महीने में कौन कहे पंद्रह दिन में ही पेमेंट कर देते हैं, फिर भी इन नामुरादों को चाचा का तनिक भी खयाल नहीं है।

कउडा को घेर कर बैठे इन चकोरों की चिन्‍ता बढने लगी। बार बार उनकी नजर चाचा के चौखट की ओर जा रहा था। रोज की तरह चच्‍ची चाय की केतली लिये नमुदार भी नहीं हो रही थीं। चकोरों ने मन ही मन अखबार वालों को और गाली देना शुरू कर दिया। तभी चच्‍ची की चाय की चासनी वाली आवाज फिजां में फैल गई। ए नारद ये चाय ले जाओ। नारद तपाक से उठे और कब चच्‍ची के हाथ की केतली और कप लेकर कउडा के पास पहुंच गए किसी ने देखा तो किसी ने नहीं देखा।

लबे बाम चाय का कप जब चाचा की ओर बढाया तो उन्‍होंने चाय में कोई दिलचस्‍पी नहीं दिखाई। बोले तुम लोग पीओ हम बाद में पी लेगी। बीजी से रहा नहीं गया। उसने कहा चाचा आज से अखबार मंगाना बंद कीजिए। जो हाथ में पकडे हैं उसे कउडा में डाल दीजिए। जब अखबार वालों को आपकी कोई फिकर नहीं है तो उनका अखबार क्‍यों लेते हैं।

चाचा बोले, नहीं रे इसमें अखबार वालों का क्‍या दोस। हमारे बडे बूढे कहते थे कि कोस कोस पर बानी बदले चार कोस पर पानी। फिर भी हम भारत के लोग एक हैं। लेकिन इ जवन राज ठाकरे है न, उसको यह बात क्‍यों समझ में नहीं आता।

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