tag:blogger.com,1999:blog-87647363679357522732024-02-21T01:04:41.011-08:00MANORANJANLIVEइसके करेक्टर हमारे गांव के हैं।
ये लोग किसी एक गांव में नहीं,
बल्कि हर भारतीय गांव में पाए जाते हैं।
बस उनकी बोली और पहनावा बदल जाता है।manoranjansinghhttp://www.blogger.com/profile/16077292512135336468noreply@blogger.comBlogger12125tag:blogger.com,1999:blog-8764736367935752273.post-57317246160609143862010-09-06T05:59:00.000-07:002010-09-06T05:59:34.197-07:00<span style="font-family: inherit;">बहुत दिनों के बाद आज लिखने का मौका मिला है . </span>manoranjansinghhttp://www.blogger.com/profile/16077292512135336468noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8764736367935752273.post-40617537816207522752010-03-24T07:21:00.000-07:002010-03-24T07:32:58.645-07:00चिठिया हो तो ...एक<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg1NkklktE5h_FNpnn5ZbZkTI-aS10qjG1zBNgE29_2XJxRqMm5UcIAstAfWY9IMl-g7yh876jhN5yFmmZ8HH5L5Ij81vNpc9STDPm05Cyr33ZC42qLZhPcAxwNMFmdVEnJg4r_917yPcs/s1600/Letter.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" nt="true" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg1NkklktE5h_FNpnn5ZbZkTI-aS10qjG1zBNgE29_2XJxRqMm5UcIAstAfWY9IMl-g7yh876jhN5yFmmZ8HH5L5Ij81vNpc9STDPm05Cyr33ZC42qLZhPcAxwNMFmdVEnJg4r_917yPcs/s320/Letter.jpg" /></a></div><br />
<strong><span style="color: blue;">सोस्ती श्री सर्व उपमा जोग लिखी गोवर्धन के तरफ से बाबा, इया, माई, बाबुजी, भईया, भौजी को सलाम पहुंचे जी। डाक्टर काका और डाक्टराइन काकी को भी सलाम कहना जी। चिटठी बांचने वाले को भी सलाम जी। फुलेसरी की माई (गोबर्धन की पत्नी) को भी ढेर सारा प्यार पहुंचे।</span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">यह एक चिटठी का मजमून है, जो एक पति अपनी पत्नी को लिखा है। चिटठी लिखने के सबके अपने अपने तरीके थे। जोरु हो, मां, पिता हों बडे भाई, छोटे भाई हों या दोस्त, चिटठी के मजमून में संबोधन और लिखने के तरीके में थोडा सा ही हेरफेर होता था, लेकिन सबका मर्म कमोबेश एक जैसा ही होता था। लगभग हर दूसरी चिटठी में लिखा होता था थोडा लिखना ज्यादा समझना। बहुत व्यापक होता था इन चार शब्दों का अर्थ। मुझे याद है उन चिटिठयों में अपनी बातें बाद में, पहले दूसरों की बातें होती थीं। भोजपुरी संगीत साहित्य में चिटठी को लेकर कई गाने लिखे और गाए गए। शारदा सिन्हा का रोई रोई पतिया लिखावे रजमतिया अगर आपने सुना होगा तो इन चिटिठयों की भावना को जरूर समझ रहे होंगे। किस रिश्ते को चिटठी लिखी गई है यही उस चिटठी की संवेदनशीलता का आधार होता था। पत्नी और प्रेयसी की चिटिठयों में दोहा, शेर ओ शायरी की छौंक जरूर होती थी। आज हम उसी रिश्तों में से एक पत्नी को लिखी जाने वाली चिटठी पर बात करते हैं। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">गांव में मेरे बडका बाबुजी पोस्टमास्टर और छोटका बाबा डाकबाबू थे। कहने का गरज यह कि हमारे घर में ही डाकखाना था। गांव बहुत बडा था। बहुत लोग नौकरी करने के लिए बाहर रहते थे। इसलिए खूब चिटिठयां आती थीं। जब डाक खुलता था तो बडका बाबुजी उन चिटिठयों पर मुहर मारने के लिए मुझे बुलाते थे। जब मैं डाकखाने वाले कमरे के दरवाजे पर पहुंचता था, तो बडका बाबुजी नाक पर नीचे तक सरक आए गांधी चश्में से झांकते हुए कहते चिटिठयां आ गईं हैं। मेरा काम होता था उन चिटिठयों पर मुहर मारकर छोटका बाबा के यहां पहुंचाना। भले ही छोटका बाबा डाकबाबू थे, लेकिन रिश्ते में थे बडका बाबुजी चाचा। वो कभी डाकखाने में नहीं आते थे। यहां सरकारी पदों पर घर का रिश्ता ज्यादा प्रभावी दिखता था। इसलिए डाक या मनिआर्डर मुझे उन तक पहुंचाना पडता था। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">रोज आने वाले डाक में चिटिठयां इतनी होती थीं कि मुझे मुहर मारने में पंद्रह से बीस मिनट का समय लगता था। उन चिटिठयों में बैरंग (बिना डाक टिकट वाले खत) ढेर सारी होती थीं। मुझे बहुत हैरत होती थी कि ये लोग बैरंग चिटिठयां क्यों मंगाते हैं। तब लिफाफा पच्चीस पैसे में मिलता था और बैरंग के लिए चिटठी प्राप्तकर्ता को पचास पैसे डाकबाबू को देने पडते थे। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">मैने अपनी उत्सुकता खत्म करने के लिए एक ऐसे ही पावती से पूछ लिया जिसका बेटा उसे बैरंग चिटठी भेजा था। उसका जवाब था कि बैरंग चिटठी के जल्दी मिलने की गारंटी होती है, क्योंकि डाक विभाग को इससे ज्यादा पैसा मिलता है। शायद तब ही हमारी डाक व्यवस्था दुनिया में सबसे बडी और विश्वसनीय डाक व्यवस्था थी, फिर ऐसे जवाब से मुझे ताज्जुब जरूर हुआ था और मेरी उत्सुकता कम भी नहीं हुई थी। वैसे हम सब डाक महकमे की लेटलतीफी को ठीक से जानते हैं। आप भी अखबारों में पढे ही होंगे कि द्वितीय विश्व यु्द्ध में एक सैनिक का भेजा गया खत उसके मरने के बाद उसके बेटे को मिली। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">खैर हम लोग पत्नी को भेजी जाने वाली चिटिठयों की बात कर रहे थे। मैं गांव के प्राइमरी स्कूल में तीसरी या चौथी में पढ रहा था। तब तक हिन्दी फर्राटेदार पढने लगा था। चिटठी पाने के बाद अक्सर लोग परदेसी की खैर खबर जानने की जल्दी में मुझसे उसे पढवाया करते थे। हिन्दी में लिखी चिटिठयों का भोजपुरी में तर्जुमा करके भी बताना पडता था। मैने महसूस किया कि चिटठी पढना भी अपने आप में एक कला है। चिटठी के मजमून की तरह उसको सुनने वाले के चेहरे पर कभी हंसी, कभी विषाद तो कभी भगवान से प्रार्थना में हाथ उठते भी देखना पडता था। इसके लिए बहुत धैर्य और चिटठी सुनने वाले के मन माफिक बनना पडता था। उसके साथ ही हंसने रोने का स्वांग भी करना होता था। कभी कभी स्थितियां बहुत गमगीन तो कभी कभी बहुत नाटकीय भी हो जाया करती थीं। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">ऐसा ही एक वाकया मुझे आज भी याद है। मैं पांचवी में पढ रहा था। उस दिन सुबह के सात साढे सात का समय रहा होगा। बाजार टोला का पारस बंबई से अपनी पत्नी के लिए चिटठी भेजा था। डाकखाने में चिटठी लेने उसकी मां आ गई। चिटठी खोला तो संवोधन (मेरी प्राणप्यारी) का मतलब मेरी समझ में नहीं आया। जब प्राणप्यारी का मतलब नहीं पता था तो यह बोध होना असंभव था कि अपनी बहू की चिटठी उसकी सास को नहीं सुनना चाहिए। इसलिए अन्य खतों की तरह पारस की पत्नी की चिटठी भी पढना शुरु किया। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">चिटठी लाल स्याही से लिखी हुई थी। संबोधन के बाद सबसे पहले एक शेर था ... लिखता हूं खत खून से स्याही मत समझना, मरता हूं तेरी याद में जिन्दा मत समझना। इधर शेर का आखिरी अशआर खत्म हुआ उधर जैसे तूफान खडा हो गया। पारस की मां छाती पीट पीट कर चिल्ला चिल्ला कर रोने लगी। अभी मैं कुछ समझ पाता द्वार पर इधर उधर खडे और अडोस पडोस के लोग वहां दौडकर आ गये। कोई कुएं पर पानी भर रहा हाथ में बाल्टी डोर लिये चला आया, कोई दतुईन कर रहा था तो वह मुंह में दतुईन चबाते चला आया, कोई जानवरों को चारा मिला रहा था तो हाथ में सानी लगे दौडा चला आया। फागू तो कुदाल लेकर नाली बनाने जा रहा था वह कंधे पर फावडा लिये चला आया। सबको लगा कोई अनहोनी हो गई है। हमने देखा है गांव ऐसे मौकों पर संजीदा हो जाता है। अचानक पारस की मां के करूणक्रंदन पर मैं सकते में आ गया। जिसको देखो वह मुझसे ही पूछ रहा था क्या हुआ। कोई पूछ रहा था पारस को कुछ हो गया है क्या, तो कोई बिना कुछ पूछे ही मेरी ओर इस निगाह से देख रहा था कि मैं चिटठी में लिखे उस अशुभ खबर को बताउं, जिसको सुनने के बाद पारस की मां का वह हाल हुआ था। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">पारस की मां थी कि अपना क्रंदन जारी रखे हुए थी। मैं अवाक सब देख रहा था। एक चिटठी का क्या असर हो सकता है मेरा पहला अनुभव बहुत ही खराब था। अब पारस की मां अपनी बहू को गाली पे गाली बके जा रही थी। इस कलमुंही के लिए हमारे बाबू अपने रकत से चिटठी लिखे हैं। वैसे मेरा बेटा पहले से ही कमजोर था, अब पता नहीं परदेस में इस मुंहझौसी के खातिर कितना खून निकाला होगा। महेंदर भाई मेरे हाथ से पारस की चिटठी जैसे छीनकर ले लिये। उपर की दो पंक्तियां पढते ही पारस की मां को डांटने लगे। इस चिटठी को तुम क्यों पढवा रही हो। यह तो पारसा बो के लिए है। उसने चिटठी लाल रंग की स्याही से लिखी है खून से नहीं। महेंदर भाई के इतना बोलते ही सबको माजरा समझ में आ गया और सब लोग हंसने लगे। </span></strong><br />
<strong><span style="color: blue;"> </span></strong>manoranjansinghhttp://www.blogger.com/profile/16077292512135336468noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8764736367935752273.post-805311706348559022010-03-20T06:11:00.000-07:002010-03-20T06:11:07.645-07:00छोटकी इया<span style="color: blue;"><strong>जब उधर संसद के बाहर और भीतर महिला आरक्षण बिल पर शोर मच रहा था तो इधर सीताराम चाचा के चौपाल में भी बहुत गर्मागर्म बहस चल रही थी। बिल के पक्ष और प्रतिपक्ष की अपनी अपनी दलीलें थीं। लेकिन मुझे अपनी छोटकी इया की याद बार बार आने लगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि जमाना तेजी से बदल रहा है। जमाने के साथ ही महिलाओं के हालात भी बदल रहे हैं। फिर भी मैं दावे के साथ कहता हूं कि छोटकी इया आज भी गांवों में जिन्दा हैं। कोई विश्लेषण नहीं है बस महिला आरक्षण बिल के संदर्भ में ही छोटकी इया की यादें प्रस्तुत है ... </strong></span><br />
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<span style="color: blue;"><strong>तीस पैंतीस साल पहले की बात है। सीताराम चाचा के चाचा थे बाबू इंद्रदेव सिंह। हम लोगों के बाबा। बाबा मतलब दादा जी। अदभुत व्यक्तित्व के मालिक। मुंह में एक भी दांत नहीं, लेकिन आवाज इतनी बुलंद कि पूछिये मत। झक सफेद फरसा जैसी मुंछें उनके व्यक्तित्व में चार चांद लगाती थीं। एक पैर से कमजोर थे। बडे कास्तकार थे। उनकी खेती बारी दूर दूर तक फैली थी इसलिए घोडी की सवारी करते थे। </strong></span><br />
<br />
<span style="color: blue;"><strong>जमींदारों जैसी सोच। मजाल क्या कि कोई बेगार उनके दरवाजे आए और बिना कोई काम किये चला जाए। डोर में बंधा एक घडा था। वह हमेशा पानी से लबालब भरा रहता था। अगर बेगार के लिए कोई काम नहीं होता था, तो कहते घइली (घडे) का पानी गिरा दो और उसमें कुएं से ताजा पानी भरकर रख दो। काम करने वाले को मजदूरी में बाबा खैनी या बीडी देते थे। एक बार मैने पूछ लिया बाबा आप ऐसा क्यों करते हैं, तो उन्होंने बताया कि नतिरम (पोते को प्यार से नतिरम कहते थे) मैं ऐसा इसलिए करता हूं कि वह गांव में जाकर लोगों से यह न कहे कि बाबू के घर कोई काम ही नहीं है।</strong></span><br />
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<span style="color: blue;"><strong>फिर भी बाबा का मन बहुत कोमल था। उनकी जानकारी में हमारे टोले में कोई भूखा नहीं सो सकता था। शाम को बुद्धन या धर्मदेव (दोनों बाबा के नौकर) की यह जिम्मेदारी थी कि दोनों टोले में जाकर देखें कि किसके आंगन से धूआं नहीं उठ रहा है। इसका मतलब था कि उसके घर खाना नहीं बन रहा है। खाना बनता तो जरूर धुआं उठता। बुद्धन और धर्मदेव की रिपोर्ट के बाद उसके घर के मालिक को बुलाया जाता था और उसके घर के सदस्यों की संख्या के हिसाब से चावल, आटा, आलू दिया जाता था, ताकि वह परिवार भूखा न सो सके।</strong></span><br />
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<span style="color: blue;"><strong>बाबा के इस बहुआयामी व्यक्तित्व के कारण ही गांव वाले उनको कई नामों से पूकारते थे। कोई फाक साहब कहता था तो कोई गांधी बाबा। हालांकि कि कालांतर में गांधी के अपभ्रंस गान्ही बाबा के नाम से वो ज्यादा मशहूर थे, लेकिन हम यहां उनको गांधी बाबा ही कहेंगे। </strong></span></div><div style="text-align: justify;"><br />
<span style="color: blue;"><strong>गांधी बाबा को अपनी लोकप्रियता बहुत पसंद थी। इसको आगे बढाने के लिए वह हर जतन करने को तैयार बैठे रहते थे। अडोस पडोस के आठ दस गांवों के लोग तो उनको बहुत ठीक से जानते थे। उनके दरवाजे से गुजरने वाले हर दस आदमी में से आठ सलाम बजाते थे। बाकी दो वो लोग होते थे, जो अडोस पडोस के गांवों के रिश्तेदार हुआ करते थे। </strong></span></div><div style="text-align: justify;"><br />
<span style="color: blue;"><strong>बाबा को ऐसे दो लोगों की बेरूखी भी नागवार गुजरती थी। ऐसे लोगों को वो हांक लगाकर बुलाते थे। सबसे पहले उनका परिचय पूछते थे। फिर जल गुड और बीडी खैनी का आमंत्रण देते थे। हर आदमी इस सत्कारचक्र में उलझ ही जाता था। उनका मकसद होता था एक बार सत्कार का मौका लेना। जिस भी मेहमान का एक बार सत्कार हो गया वह जाते समय जरूर सलाम बजाता था। अगर भविष्य में उसे इस राह से गुजरना हुआ तो हर बार वह बाबा के सत्कार का ऋण उतारकर ही जाता था। यानि सलाम बजाना नहीं भूलता था।</strong></span></div><div style="text-align: justify;"><br />
<span style="color: blue;"><strong>बाबा की दो शादियां हुईं थी। बडकी इया (बडी दादी) और छोटकी इया (छोटी दादी) दोनों जीवित थीं। बडकी इया झक गोरी और छोटी थीं तो छोटकी इया सांवली और लंबी। दोनों इया में एक दूसरे के प्रति स्नेह और आदर भाव देखकर लगता था दोनों सहोदर बहनें हैं। सौतन के पारंपरिक और गढे परिभाषा दोनों इया को छू तक नहीं पाए थे। गांधी बाबा की दूसरी शादी इसलिए हुई, क्योंकि बडकी इया से काई संतान नहीं थी। छोटकी इया से पांच बेटियां हुईं। </strong></span><br />
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<span style="color: blue;"><strong>बाबा का दोनों इया से व्यवहार अलग अलग तरह का था। वो बडकी इया का बहुत सम्मान करते थे। हर छोटे बडे फैसले में उनकी राय लेते थे। लेकिन छोटकी इया को बात बात पर डांटते रहते थे। मुझे याद है कई बार तो इतना नाराज हो जाते थे कि खरहर (द्वार बहारने वाला झाडू) से मारते थे। जब वह खरहर लेकर इया पर हमलावर होते थे तो घर में सन्नाटा पसर जाता था। केवल गाली व उनके डांटने की तेज तेज आवाजें आती और बीच बीच में खरहर पटकने पर झम झम का शोर। लगता ही नहीं था कि उस कमरे में और कोई है। बडकी इया के हस्तक्षेप के तुरंत बाद बाबा अपना आक्रमण रोक देते थे और बिना कुछ बोले द्वार पर चले जाते थे। </strong></span><br />
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<span style="color: blue;"><strong>यह सब कुछ इतना जल्दी में होता था कि किसी को कभी समझ में नहीं आता कि गांधी बाबा नाराज क्यों थे। जब बाबा द्वार पर चले जाते थे तो छोटकी इया रोना शुरू करती थीं। घर की अन्य औरते उनको घेर कर चुप कराने लगती थीं। उसी में कोई कहता बाबा इया को मार थोडे ही रहे थे, वो तो कोठिला (अनाज रखने के लिए मिटटी का एक बडा पात्र ) पर खरहर पटक रहे थे। इया तो कोठिला के पीछे थीं। इस पर छोटकी इया हंसने लगती थीं और थोडे ही समय पहले का वह तनावपूर्ण माहौल द्वाण में सरस हो जाता था। </strong></span><br />
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<span style="color: blue;"><strong>छोटकी इया के रोने के पीछे का मनोविज्ञान शायद यह होता था कि वैसे तो सार्वजनिक तौर पर बाबा की नाराजगी का विरोध तो नहीं कर सकती थीं, इसलिए रोकर अपना विरोध प्रकट करती थीं। ऐसा हर हफ़ते दस दिन में होता था और छोटकी इया हर बार ऐसा ही करती थीं।</strong></span><br />
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<span style="color: blue;"><strong>गांधी बाबा के जीते जी घर के किसी भी बहू को चौखट के बाहर कदम रखने की इजाजत नहीं थी। कोई नई बहू हो या बडकी इया केवल अपने नइहर (मायके) जाते वक्त ही चौखट के बाहर पांव रखती थी। वह भी डोली या बैलगडी में। डोली और बैलगाडी में पर्दा बंधा होता था। हां साल में एक बार जिउतिया के व्रत में नदी नहाने के लिए खिडकी के रास्ते जाने की इजाजत होती थी। </strong></span><br />
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<span style="color: blue;"><strong>एक बार छोटकी इया घर की बुजुर्ग महिलाओं के साथ नदी नहाने के लिए गईं। सभी महिलाएं घूंघट में ही जाती थीं। नदी से नहाकर लौटते समय छोटकी इया पीछे छूट गईं। घूंघट से उनको आगे चल रही घर की औरतें दिखाई नहीं दीं और वो रास्ता भटक गईं। जब वो तुरहाटोली के नजदीक पहुंचीं तो उनको कालीचरन ने पहचान लिया। उनके पास जाकर पैलगी करने के बाद कालीचरन ने पूछा मलकिन कहां जा रही हैं। छोटकी इया ने भी कालीचरन को पहचान लिया। कालीचरन खेतीबारी में हाथ बंटाता था। उन्होंने घूंघट की ओट से ही धीरे से कहा घर जा रही हूं। कालीचरन ने कहा घर तो आप पीछे छोड आई हैं, चलिये आपको छोड आता हूं। छोटकी इया कालीचरन के साथ घर पहुंचीं। इधर घर में नदी से लौटकर आईं महिलाएं छोटकी इया को लेकर खुसुर फुसुर कर रहीं थीं। किसी में यह हिम्मत नहीं थी कि इसकी सूचना बाबा को दे दें। जब कालीचरन खिडकी के रास्ते छोटकी इया को लेकर आया तब जाकर सबके जान में जान आई।</strong></span><br />
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<span style="color: blue;"><strong> </strong></span></div>manoranjansinghhttp://www.blogger.com/profile/16077292512135336468noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8764736367935752273.post-47444908310443687422010-02-28T06:16:00.000-08:002010-03-02T22:17:25.436-08:00सदा आनंद रहे एहि द्वारे<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhP-E8yaimab41o9wwaydnqXs1LNmyqlHbNJYaU4vG3bvSPm-GSIKakViw3vdIAJZsh3OJMyAHFAyGglLyo1LWvhas6uP0hniz031N51vovN-2jUnWFk8Ly5_rk1B9hWsn5a-er-uooa0k/s1600-h/10.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" kt="true" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhP-E8yaimab41o9wwaydnqXs1LNmyqlHbNJYaU4vG3bvSPm-GSIKakViw3vdIAJZsh3OJMyAHFAyGglLyo1LWvhas6uP0hniz031N51vovN-2jUnWFk8Ly5_rk1B9hWsn5a-er-uooa0k/s320/10.jpg" /></a></div><br />
<strong><span style="color: blue;">जुम्मन मियां हमारे गांव में गंगा जमुनी तहजीब के जीते जागते, चलते फिरते, बोलते चालते प्रतीक हैं। बाइस हजार की आबादी में जुम्मन खां का इकलौता मुस्लिम परिवार है। ईद हो, मोहर्रम हो, होली हो, दीवाली हो समूचा गांव जुम्मन मियां के साथ ही मनाता है। वैसे तो उनकी ढेर सारी खूबियां हैं, लेकिन उनमें जो सबसे बडी खूबी है और जिसके कारण जवार पथार में वह पहचाने जाते हैं, वह यह है कि जुम्मन खां हमारे गांव के ब्यास हैं। हमारे बलिया और बिहार के पडोसी जिलों में ब्यास उसे कहते हैं, जो गौनिहारों की टीम का नेतृत्व करता है। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">उनको रामायण, महाभारत कंठस्थ है। उन्होंने इन दोनों पुराणों की रचना लोकधुनों और फिल्मी धुनों में कर रखी है। उन्होंने किसी भी नामचीन उस्ताद से बाकायदा कोई तालीम नहीं ली है, लेकिन स्वर और लय की उनकी गजब की समझ है। तभी तो आसपास के जिलों के ब्यासों में उनकी बहुत इज्जत है। बताते हैं कि बचपन से ही जुम्मन मियां गौनिहारों की टोली में जाने लगे थे। इसके लिए उनके अब्बा हुजूर ने कई बार कस के ठुकाई की, लेकिन वह कहां मानने वाले थे। गौनिहारों की संगत में बैठते बैठते वह अब इतने बडे ब्यास बन गए।</span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">आज रात में सीताराम चाचा के यहां होरी गाने के लिए गौनिहारों का जुटान है। सुबह से ही बैठने के लिए दरी कालीन का इंतजाम हो रहा है। लल्लू लोहार के यहां से चार चार गैस लाइटें मंगाया गया है। चाचा ने अपनी तीन भैसों का तकरीबन अठारह लीटर दूध गौनिहारों के लिए सुबह ही रखवा लिया। जो चाय पीने का शौकीन है उसे चाय नहीं तो बाकी सबको आज भर भर के दूध दिया जाएगा। यही नहीं गौनिहारों के लिए खैनी, बीडी, सिगरेट और पान का भी इंतजाम है। सुनने में आया है कि चच्ची मालपुआ भी बनवा रही हैं। जब भी सीताराम चाचा के यहां गौनिहारों की बैठकी होती है, खाने खिलाने का खूब इंतजाम रहता है। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">अंधेरा होने से पहले ही लल्लू ने गैस लाइटों को जला दिया। जंग भाई ने बलेसर और नारद के साथ गुडडू को यह ताकीद कर रखा है कि इंतजाम में कोई कमी नहीं रह जाए, नहीं तो सीताराम चाचा के कोप से उनको कोई नहीं बचा पाएगा। आठ बजते बजते गौनिहारों और सुनने वालों से उनका दरवाजा भर गया। दरी और जाजिम कम पड गए तो बाकी जगहों पर पुआल डाल दिया गया। गौनिहारों के दल ने पहले ढोलक, झाल, झांझ, हारमोनियम और तासे को बजाकर गीत गवनई का माहौल बनाया। जुम्मन मियां ने सबसे पहले सरस्वती वंदना की और फिर परंपरागत होरी ...शिवशंकर खेले फाग गौरा संग लियो ... से वो ताल जमाया कि जो कभी इन गौनिहारों के साथ गाते नहीं थे वो भी अपने दोनों हाथों को ही झाल के मानिंद बजाकर झूमने लगे। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">हमारे यहां होरी दो तरह से गाई जाती है। एक बैठकी होती है, जिसे भोजपुरी संगीत साहित्य में धमार कहते हैं। जुम्मन मियां अपनी मंउली के साथ एक पर एक धमार ... उडेला अबीर गुलाल लाल भइल असमानवा..., रसिया घनश्याम होरी खेले गोपियन से ..., मोरा फुलगेनवा के साध हो आहे आजु श्याम मोहे बगिया लगा द..., अंखिया भइल लाले लाल एक नींद सोवे द बलमुआ... गाकर माहौल को पूरी तरह से होरीमय कर दिया। होरी के इन गानों को सुनकर पता चलता है कि भोजपुरी संगीत कितनी समृद्ध है। गजब का सुर और ताल के आरोह अवरोह के रंग में सभी गौनिहार और सुनने वाले डूब उतरा रहे थे। तभी स्रोता दीर्घा से फरमाइश आई कि ब्यास जी अब झूमर सुनने का मन कर रहा है। एकआध झूमर हो जाए।</span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">धमार और झूमर इन दो विधाओं में ही आमतौर पर हमारे यहां होरी गाई जाती है। हालांकि कई स्वर पंडितों ने ठुमरी में भी होरी को गाकर इस भोजपुरी लोक संगीत को और समृद्ध किया है। खैर झूमर सुनने की सबके अंदर बेताबी देखी जा सकती है। जुम्मन मियां ने झूमर शुरू करने से पहले उसकी भूमिका तैयार करते हुए बोले भाइयों, हमारे किसी भी त्योहार में सबकी भलाई और कल्याण की ही कामना है। हर दरवाजे जाकर ... सदा आनंद रहे एहि द्वारे मोहन खेले होरी ... भी इसी तरह की एक कामना है। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">अब तो होरी के इस मनभावन त्योहार को भी जाति, धर्म के खांचे में रखकर देखा जाने लगा है। पर्व तो पर्व होते हैं, उनको जातिगत या सांप्रदायिक आग में डालने का नुकसान किसको होता है। कभी आपने विचार किया है कि इस आग में किसका घर जलता है, सुधी स्रोताओं इस आग में उन लोगों का ही घर जलता है जिनके घर झोंपडी के होते हैं। कुछ लोगों द्वारा हमारे सौहार्द की राह में डाले गए कांटे उनको चुभते हैं जिनके पैरों में जूते चप्पल नहीं होते। इसलिए मेरे भाइयों अपने पर्वो को सांप्रदायिक और जाति के खांचे में कुछ सिरफिरों के डालने की कोशिशों को नाकाम कर दें। जुम्मन खां के इतना बोलते ही चारो तरफ से तालियों की गुंज सुनाई देने लगी। जुम्मन मियां अपने प्रति अपने गांव वालों के इस प्यार को देखकर अभिभूत हुए बिना नहीं रह सके। और फिर झूमर ... सदा आनंद रहे एहि द्वारे मोहन खेले होरी ... गाकर ऐसी समां बाधी कि कुछ लोग तो भीड में ही खडा होकर नाचने लगे।</span></strong><br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiTDyi7xCX_qpwDgPVrtsCGNzFvkDIlsGTwZKEOqC8M37uYEahs_C6kPu-BjZF8wikkAQbEViOpZDwq6GxxGMDvI2GDV3qyFIQR1Vrn5JD47sz7S6PcHLiyaD1KDO7F3T5LIdeZOHRue3o/s1600-h/Holi.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" kt="true" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiTDyi7xCX_qpwDgPVrtsCGNzFvkDIlsGTwZKEOqC8M37uYEahs_C6kPu-BjZF8wikkAQbEViOpZDwq6GxxGMDvI2GDV3qyFIQR1Vrn5JD47sz7S6PcHLiyaD1KDO7F3T5LIdeZOHRue3o/s320/Holi.jpg" /></a></div><strong><span style="color: blue;"> </span></strong>manoranjansinghhttp://www.blogger.com/profile/16077292512135336468noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8764736367935752273.post-77931141213092107662010-02-21T03:15:00.000-08:002010-02-24T21:50:23.491-08:00अखबारवाला<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWGfFBjR7Dn8y0GkMp1YEMG3koZW8CGlLjQZiUQl1_o7md_vV1yFV-X91plLwtrHIa6ypaEs3YYkefKsdLoZNnGIGJlb00zyGhGmSA1K04CN7NipGlO8Kza3hUuhGp3Kde1Qhus-KyBx0/s1600-h/Akhabarwala.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" kt="true" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWGfFBjR7Dn8y0GkMp1YEMG3koZW8CGlLjQZiUQl1_o7md_vV1yFV-X91plLwtrHIa6ypaEs3YYkefKsdLoZNnGIGJlb00zyGhGmSA1K04CN7NipGlO8Kza3hUuhGp3Kde1Qhus-KyBx0/s320/Akhabarwala.jpg" /></a></div><br />
<strong><span style="color: blue;">कल भोर में ही कानपुर लौट जाना है। इसलिए मामा से मिलने की आकुलता लगातार बढती ही जा रही है। क्योंकि गांव में शायद मैं ही इकलौता हूं, जो मामा का स्नेहपात्र हूं। ऐसा मेरे बचपन से ही है। सीताराम चाचा ने एक दिन मुझे बुलाकर अकेले में समझाया कि तुम उसको और बच्चों की तरह मामा मत कहना। तब से मैं मामा को कभी मामा कहकर नहीं बुलाता था। उनको अमीन साहब कहकर बुलाता था। जैसे किसी सिपाही को दीवान जी या किसी लेक्चरार को प्रोफेसर साहब कहने पर उसके अंदर जिस खुशी की अनुभूति होती है, कहीं उससे अधिक मामा को जब जब मैं अमीन साहब कहकर पुकारता था, तो उनकी बांछें खिल जाया करती थीं। इसके कई फायदे थे। भीड में भी मामा मेरी बातों को तरजीह देते थे और साथ में गांव के अन्य बच्चों से अलग और सुशील होने का तमगा भी। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">कल सुबह मुलाकात हो या न हो, इसलिए आज रात में ही मामा से मिलने सीताराम चाचा के दरवाजे पहुंच गया। वहां देखा मामा नारद नाई की हजामत उल्टे उस्तरे से बना रहे थे। मामा बोले, कहते हैं कि पंछियों में कउवा (कौवा ) और आदमी में नउवा (नाई) बहुत चतुर सुजान होते हैं। लेकिन मेरा मानना है कि ये दोनों जीव चतुर तो होते हैं, लेकिन धूर्त किस्म के चालाक होते हैं। नारद ने मामा के इस तर्क का प्रतिवाद किया। आप तो हर बात में अपनी सुविधा के हिसाब से तर्क और परिभाषा गढते हैं। ऐसा केवल मेरा मानना नहीं है, बल्कि यह विचार समूचे गांव का है। मामा कहां चुप रहने वाले थे। बोले, तुमको कब से यह गलतफहमी हो गई कि गांव वालों ने तुमको अपना भोंपा (प्रवक्ता) नियुक्त कर दिया है। तुम बोलो तो मान लिया जाए कि समूचा गांव बोल रहा है और तुम चुप रहो तो यह समझा जाए कि पूरे गांव ने अपनी जुबान पर ताला जड लिया है। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">नारद का तीर निशाने पर लगा था। उसने मन ही मन सोचा लोहा गर्म हो गया है, क्यों न हथौडा मार दिया जाए। नारद थोडा और उत्साहित होकर लेकिन धीमी आवाज में बोला, मामा आप तो खामखा नाराज होने लगे। अच्छा चलिए, एक सवाल है मेरा, बोलिए जवाब देंगे। मामा ने कहा हां हां पूछो। सोच लीजिए सवाल बहुत टेढा है। अरे तुम पूछो तो, बडे बडों की हिम्मत नहीं होती हमसे सवाल पूछने की, तुम अगर पूछना ही चाहते हो तो तुम्हारा स्वागत है। मामा फिर मैं कह रहा हूं सोच लीजिए, सवाल बहुत टेढा है। तुम तो ऐसे धमका रहे हो जैसे विद्योतमा कालिदास से सवाल पूछने वाली हों। मामा मैं अदना सा कम पढा लिखा गंवार आदमी। मुझे नहीं पता कि विद्योतमा और कालिदास कौन थे, लेकिन फिर एक बार कह रहा हूं मेरे सवाल का जवाब देना आपके लिए आसान नहीं होगा, सोच लीजिए। अरे जाओ, जब मेरे सामने दारोगा हाथ जोडकर खडा हो गया तो तुम किस खेत की मूली हो। अपना सवाल पूछो। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">अच्छा मामा, यह बताइए इतिहास में ऐसा कौन सा मामा है जिसकी लोग इज्जत से नाम लेते हैं। रावण का मामा मारीचि, सीता का अपहरण कराने का दोषी था। शकुनी मामा, द्रौपदी का चीरहरण कराकर महाभारत की नींव रख दिया। कंस मामा, जिसने अपनी बहन और बहनोई (जीजा) को जेल में डाल अपने भांजे (कृष्ण) के ही खून का प्यासा बना रहा। माहिल मामा जिसके कारण आल्हा उदल को अपने भाइयों का संहार करना पडा। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">नारद एक एक उदाहरण रखता जा रहा था और उधर मामा की त्योंरियां चढती जा रही थीं। इधर नारद चुप हुआ उधर मामा ने गुस्सैल सांड जैसे नथुने फुलाते हुए बोले कि एक तो नाई और उपर से बाप ने नारद नाम रख दिया। एक तो करैला दूसरे नीम चढा। तुम्हारे सवाल का यही जवाब है, दूसरा कोई जवाब नहीं है। सीताराम चाचा की ओर इशारा करते हुए, यही हैं कि तुम लोगों को अपने सिर पर चढाए रखते हैं। मेरा चले तो तुम लोगों को मुंह न लगाउं। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">चाचा समझ गए अब हस्तक्षेप नहीं किया तो बात बिगड जाएगी। इस चोंचलेबाजी की दिशा बदलते हुए चाचा सीधे मुझसे मुखातिब होते हुए बोले, तुम कब आई कानपुर से। मामा नारद संवाद में लोग इतने मशगूल थे कि किसी को भी मेरे वहां होने की सुधि नहीं थी। मैं जहां जाकर धीरे से बैठ गया वहां चाचा के लालाटेन की रोशनी भी कम पड रही थी, लेकिन शायद सीताराम चाचा ने देख लिया था। चाचा के पूछते ही वहां बैठे बीजी पंडित, बलेसर और जुम्मन मियां की मुझसे एक शिकायत थी। सबका यही कहना था कि भइया आप तो गांव को ही भूल गए हो। साल सालभर में आते हो। तीज त्योहार में भी नहीं आते। लेकिन मैं दावे के साथ यह कह सकता हूं कि मामा ने जब मुझे देखा तो थोडी देर पहले का आग भभूका उनका चेहरा खुशी से खिल उठा था। मुझे लगा इस तनावपूर्ण स्थिति में अचानक मेरा वहां प्रकट होना उनको सुकून दे रहा था। मैने मामा का अभिवादन किया। उन्होंने आशिर्वाद में अपना दोनों हाथ उठाया। उनके चेहरे पर ऐसा स्नेहिल मुस्कान तिर रहा था मानो उनके पास जितना भी स्नेह है वह सारा स्नेह मुझे दे रहे हैं। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">मामा तो मामा हैं। उनका स्वाभाविक गुण तो सामने वाले को चिकोटी काटना ही है। हमें जैसे इसकी कल्पना नहीं करनी चाहिए कि आदमी सांस लेना छोड दे, सांप विष त्याग दे या ज्वालामुखी आग और लावा उगलना छोड दे वैसे ही मामा टांग खिंचाई छोड दें, इसकी भी कल्पना नहीं करनी चाहिए। हम दोनों बहुत दिन बाद मिल रहे थे, सो मामा यह जताने लगे कि वो मुझे जानते ही नहीं हैं। मामा ने वहां बैठे लोगों से पूछा, इ भाई साहब कौन हैं। किसके घर के मेहमान हैं । मुझे यह समझने में तनिक भी देरी नहीं हुई कि नारद के बाद अब मेरी बारी है। हां यह भरोसा था कि नारद जितना तल्ख नहीं होगा हमला। क्योंकि मामा ने गांव के लोगों को अनेक कटैगरी में श्रेणीबद्ध कर रखा है। इसको सूचिबद्ध करने के उनके पैमाने हैं। मैं मामा की नजर में जिस कटैगरी का मानद सदस्य हूं उसमें ज्यादा तल्खी की गुंजाइश नहीं है। मैने दोनों हाथ जोडकर कहा, अमीन साहब मैं मनोरंजन। अच्छा अच्छा वही अखबार वाला। मामा से आज तक जो अखबारवाला अक्सर मिलता है, वह है सीताराम चाचा को रोज अखबार पहुंचाने वाला हाकर। मामा का मानना है कि अखबार के लिए काम करने वाला हर आदमी अखबार बेचता है। क्योंकि कई बार मुझसे पूछ चुके हैं कि अखबार बेचकर कितनी आमदनी हो जाती है। मैने सोचा अखबारवालों के बारे में मामा के इस धारणा को बदला जाए। इससे हम टांग खिचाई से बच जाएंगे और मामा थोडा अपडेट भी हो जाएंगे। इसलिए उनको अखबार के एक एक काम को तफ़सील से बताया। उन्हें यह भी बताया कि इस बडी इंडस्टी में हम क्या काम करते हैं। हमने यह भी बताया कि देर रात तक जागकर आपके लिए यह अखबार तैयार करते हैं।</span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">ऐसा लगा कि मामा को इस नई जानकारी से कुछ लेना देना नहीं हैं। उन्होंने कहा, बेटवा इससे तो बढिया है गांव आकर रहो। बुजुर्गों की अर्जित की हुई इतनी जमीन है। खेती बारी करोगे तो जितना पाते हो उससे अधिक पैदा करोगे। कम से कम रात में समय से सो तो सकोगे। भगवान दिन बनाया है जगने के लिए रात सोने के लिए। तुम तो भगवान के इस अनुशासन को रोज ही तोडते हो। न तो अपने चैन से सोते हो और न तो बाल बच्चों को चैन से सोने देते हो।</span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">मामा का सुझाव कितना सही है या कितना गलत इसे हम आप पर छोडते हैं, लेकिन इस बातचीत में मुझे विनय बिहारी भाई की याद आ गई। वह कोलकाता जनसत्ता में काम करते हैं। उनके घर जो दाई (कामवाली) आती है उसने एक दिन विनय भाई की पत्नी से कहा, मेमसाहब साहब को किसी अच्छे डॉक्टर से क्यों नहीं दिखातीं। दाई के इस सुझाव पर भाभी ने पूछा, साहब को डॉक्टर को क्यों दिखाउं। उनको क्या हुआ है। दाई ने कहा, लगभग तीन साल हो गए आपके घर काम करते हुए। जबसे मैं आ रही हूं, देखती हूं साहब बेड पर ही पडे हुए हैं। इतने दिनों से कोई बेड पर पडा हो तो गंभीर रोग का ही तो मरीज होगा। भाभी दाई की बात पर हंसते हुए बताई कि साहब अखबार में काम करते हैं। देर रात घर आते हैं तो देर तक सोते हैं। जब तुम झाडू पोंछा करके अपने घर जाती हो उसके एक घंटा बाद साहब उठते हैं। संयोग से तीज त्योहार छुटटी रहती है तो उस दिन तुम काम पर नहीं आती हो। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">इसके अलावा एक और रोचक कहानी हमारे एक अखबारी मित्र की भी है। उनका एक पांच साल का बेटा है। जब वह चार साल का हुआ तो स्कूल में दाखिल करने के लिए अपने परिवार को गांव से ले आए। जब वो दफ़तर से घर जाते हैं तो बेटा सोते हुए मिलता है। जब वो जगते हैं तो वह स्कूल जा चुका होता है। बेटे का दाखिला महंगे स्कूल में करा दिए सो घर का खर्च बढ गया। जिस अखबार में काम करते हैं वहां ओवरटाइम मिलता है, इसलिए अपने साप्ताहिक अवकाश में भी वह काम करते हैं, ताकि घर का खर्च ठीक से चलता रहे। ऐसे में वह बेटे से मिल नहीं पाते हैं। एक दिन क्या हुआ कि दफ़तर में काम करते समय उनकी तबियत कुछ नासाज हुई तो वह छुटटी लेकर घर आ गए। वाहर से जब वह कॉलबेल बजाए तो उनका बेटा आया और स्टूल लगाकर डोर आई से देखा तो उसे कोई अपरिचित आदमी बाहर खडा दिखा। वह बिना दरवाजा खोले मां के पास पहुंचा और बोला, मां जो आदमी बाहर खडा है उसको मैं नहीं जानता। हां उसका फोटो आपके बेडरूम में लगा है। मां हंसने लगी और बेटे को पुचकारते हुए बताया कि बेटा ऐसा नहीं कहते, वो तुम्हारे पापा हैं। जाओ दरवाजा खोल दो। बेटा दौडा हुआ गया और दरवाजा खोल दिया। हमारे मित्र घर में घुसते ही बेटे को गोद में उठाकर जब अपनी पत्नी के पास पहुंचे तो उनको भाभी ने बेटे की बात बताईं। दोनों हसने लगे। </span></strong>manoranjansinghhttp://www.blogger.com/profile/16077292512135336468noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8764736367935752273.post-80468749414123477672010-02-17T08:34:00.000-08:002010-02-24T21:52:45.006-08:00घोंघाबसंत मामा<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgBS1xXFSzTb69SGgosLHy3NuLzgDoOvxVgNdJ0DrkfbuhT8c85YxoDyamjQ-UZfWKTwaqrPy4wyCJmMQc6qqxxpJdzAMS_tv4PjuZtUD-HzfmI8D3PRUComMsD3DjpiBZtk1PpvN2AbuM/s1600-h/mama1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" kt="true" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgBS1xXFSzTb69SGgosLHy3NuLzgDoOvxVgNdJ0DrkfbuhT8c85YxoDyamjQ-UZfWKTwaqrPy4wyCJmMQc6qqxxpJdzAMS_tv4PjuZtUD-HzfmI8D3PRUComMsD3DjpiBZtk1PpvN2AbuM/s320/mama1.jpg" /></a></div><br />
<strong><span style="color: blue;">बहुत दिनों बाद गांव गया था। वहां तमाम नयी बातें जानने और सुनने को मिलीं। उसमें एक बात यह थी कि मामा इन दिनों आए हुए हैं। मामा सरकारी मुलाजिम थे। पिछले चार सालों से रिटायर चल रहे हैं। मामा संग्रह अमीनों के चपरासी थे। संग्रह अमीनों इसलिए कि हमारे गांव के कई अमीन बदले, लेकिन मामा नहीं बदले। उनका सर्किल (क्षेत्र) नहीं बदला। मामा की तहसील भर के संग्रह अमीनों में बडी डिमांड थी। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">बाकुडी (छडी) साइकिल की हैंडिल पर लटकाकर चलते थे। उनकी साइकिल लहराते हुए चलती थी। मामा की बाकुडी की भी एक कहानी है। आमतौर पर बुजुर्ग लोग ही बाकुडी लेकर चलते हैं, लेकिन मामा के हाथों में तो जवानी के दिनों में ही बाकुडी आ गई थी। दरअसल मामा की साइकिल की चाल बडी बेढंगी थी। उनको साइकिल चलाने के लिए कम से कम दो मीटर चौडा रास्ता चाहिए। रास्ते में अगर कोई जानवर बैठा है तो दुर्घटना तय है। जो जानवर मोटरसाइकिल को आते देखकर भी चैन से बैठे बैठे जुगाली करते रहते हैं वो मामा की साइकिल को दूर से आते हुए देखते ही उठ खडे हो जाते हैं जैसे अब भूचाल आने वाला हो। मामा जब तक उनके सामने से गुजर नहीं जाते थे ये जानवर उनको कातर नजरों से देखते रहते हैं। कई तो इतने डरे हुए थे कि अपना खूंटा तोडाकर भाग जाते थे। आमतौर पर ये जानवर आवारा भैसा या सांड के आने पर ऐसा करते हैं। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">कई कुत्ते भी मामा की साइकिल की चपेट में आकर अपना पैर गंवा चुके थे। जब घायलों की संख्या बढने लगी तो गांव के कुत्तों ने अपनी सुरक्षा के लिए एक उपाय किया। मामा के उत्तर दिशा से गांव में प्रवेश करते ही उत्तर दिशा वाले कुत्ते ऐसी आवाज में चिल्ल पों मचाते थे मानों उन पर किसी का आक्रमण हो गया हो। उनकी इस चिल्ल पों में आक्रामकता नहीं होती। ये कुत्ते तब तक भौंकते रहते जब तक आगे के रास्ते के उनके साथी भौंकने नहीं लगते थे। इतने बडे गांव में मामा के प्रवेश के दो मिनट बाद ही गांव के हर कोने से कुत्तों की आवाजें आने लगती थीं, मानों गांव में चारों ओर से दुश्मन गांव के सैकडों कुत्ते एक साथ घुस आए हों। कहने का गरज यह कि मामा के गांव में घुसते ही दो मिनट के भीतर भयभीत कुत्ते यह सार्वजनिक कर देते कि मामा के साइकिल के दोनों खूनपिपासू पहियों की गांव की धरती पर धमक हो चुकी है। गांव आने वाले लगभग सभी मेहमानों को भी पता होता था कि यह मामला मामा बनाम कुत्तों का है।</span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;"> हमारे गांव के कुत्तों में आए इस बदलाव के तुरंत बाद मामा को भी अपनी सुरक्षा की चिन्ता सताने लगी। उनको यह आशंका सताने लगी कि उनसे आहत कुत्ते कभी भी उन पर आक्रामक हो सकते हैं। उस समय उनके संग्रह अमीन केदार सिंह हुआ करते थे। गांधी टोपी लगाने वाले केदार सिंह भी एक विचित्र किरदार हैं, उनके बारे में फिर कभी। मामा ने जब अपनी चिन्ता केदार सिंह को बताई तो उनका ही सुझाव था कि एक बाकुडी ले लो। इससे एक पंथ दो काज हो जाएगा। कुत्तों से तो सुरक्षा होगी ही जिस बकायेदार के पास अपनी यह बाकुडी लेकर जाओगे तो वह डर के मारे तकाबी जमा जाएगा। तबसे मामा के हाथ में बाकुडी देखी जा रही है। लोग बताते हैं कि जिस बकायेदार के दरवाजे मामा की साइकिल पहुंच जाए तो क्या मजाल कि वह तकाबी (बकाया) जमा न करे। संग्रह अमीनों की नौकरी उनके रेवेन्यू रिकवरी पर ही चलती है, इसलिए जो भी संग्रह अमीन हमारे गांव के लिए नियुक्त होता था वह मामा को ही अपना चपरासी बना लेता था। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">ये अदभुत मामा हैं। </span></strong><strong><span style="color: blue;">ऐसे मामा जिनको मामा कहो तो गाली देते हैं। सीताराम चाचा के साले हैं तो स्वाभाविक रूप से समूचे गांव जवार के लोग उनको मामा ही कहेंगे। सच बताउं तो द्वापर के शकुनी मामा, त्रेता के मारीचि मामा और कलियुग के माहिल मामा के सबसे होनहार वारिस हैं। गांव के एक एक बच्चे को उसके नाम से नहीं उसके पिता के नाम से पहचानते थे। बच्चे उनको देखते ही मामा नमस्ते, मामा नमस्ते कहने लगते थे। लेकिन मामा आशिर्वाद देने की जगह यह कहते हुए निकल जाते थे कि फलाने के बेटा रूको तुम्हारे बाप से तुम्हारी शिकायत करते हैं। कभी कभी बहुत गुस्से में वह उस लडके के पिता के पास भी जाते थे, लेकिन बच्चे के पिता भी मामा कहकर अभिवादन करते तो विचारे बहुत दुखी होकर अपने गंतव्य की ओर यह भुनभुनाते हुए चले जाते थे कि इस गांव के कुएं में ही भांग पडा हुआ है। बेटा तो बेटा वाप भी कम नहीं हैं। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">एक दिन इससे भी मजेदार वाकया हुआ। दो लडकों ने देखा कि मामा आ रहे हैं, तो नजदीक आते ही मामा नमस्ते कहकर अभिवादन किया। आश्चर्यजनकरूप से मामा तनिक भी नाराज नहीं हुए उन दोनों के पास साइकिल रोककर पूछे बेटा मेरी दो बहनें थीं। एक रिक्शे वाले के साथ भाग गई और एक ने तांगे वाले से शादी कर ली, बताओ तुम दोनों उसमें से किसके बेटे हो। बच्चे मामा से इस तरह के जवाब की उम्मीद भी नहीं कर रहे थे। सो अवाक मामा का चेहरा देखने लगे। मामा बार बार पूछे जा रहे थे कि बताओ तुम हमारी किस बहन के बेटे हो। उसमें एक लडका कुछ ज्यादा ही शरारती था। उसने कहा, मामा सीताराम चच्ची का, और दोनों लडके ताली पिटते वहां से भाग गए। </span></strong><br />
<strong><span style="color: blue;">हाजिरजवाब ऐसे कि बडे बडे पानी मांगने लगें। लोगों की टांग खिचाई करने में इनको बहुत मजा आता है। जब देखो किसी न किसी की खिचाई करते मिलेंगे। एक बार क्या हुआ कि इलाके का जो दारोगा आया वह बडा ही मजाकिया मिजाज का था। उसने अपने थाना क्षेत्र में एलान कराया कि जो भी आदमी उसको मजाक में हरा देगा, वह उसे अपना गुरु मान लेगा। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">गांव के लोग तो पहले से ही मामा की हाजिरजवाबी के कायल थे। इस प्रतियोगिता के लिए मामा से बेहतर कोई दूसरा उम्मीदवार उन्हें नहीं सूझ रहा था। गांव वालों ने यह प्रस्ताव मामा के सामने रखा तो गांव वालों से खार खाए मामा ने उनका प्रस्ताव ही खारिज कर दिया। जुम्मन, बलेसर, नारद और बीजी पंडित भी हजार कोशिश कर मामा को इस प्रतियोगिता के लिए तैयार नहीं कर सके। जुम्मन ने कहा मामा सीताराम चाचा की बात को नहीं टालते, चलो इसके लिए चाचा से बात करते हैं। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">गांव के और कुछ लोगों को साथ लेकर चारो चकोरे चाचा के घर पहुंचे। पहुंचते ही जुम्मन मियां ने मामा वाला प्रस्ताव चाचा के समक्ष रख दिया। चाचा इस अटपटे प्रस्ताव को सुन नाराज होने लगे। तुम लोगों को फालतू बातों के अलावा और कुछ नहीं सूझती है क्या। बीजी ने फरमाया, चाचा अगर मामा ने यह प्रतियोगिता जीत लिया तो गांव के लोगों की थाने में इज्जत बढ जाएगी। दारोगा मामा को अपना गुरु मान लेगा। जितने लोग थे उतनी दलीलें थीं। चाचा ने कहा चलो उससे कहती है। उसमें से एक लडका दौडकर मामा को यह कहकर बुला लाया कि आपको सीताराम चाचा बुला रहे हैं। मामा के वहां पहुंचते ही चाचा ने कहा, इस प्रतियोगिता में जाने से कोई बुराई नहीं है। मुझे भरोसा है तुम्हारे सामने दारोगा पानी मांगते दिखेगी। केवल गांव वालों पर अपना कौशल दिखाती हो, तो अब साबित करने का समय आ गयी है कि वाकई तुम्हारे हाजिरजवाबी के आगे कोई दारोगा दारोगी भी नहीं टिकेगी। जब तक वह दारोगा रहेगी थाने में तुम्हारी रौब बढ जाएगी। चाचा का आदेश था, और एक तहसील के चपरासी जैसे छोटे ओहदे वाले मामा के लिए दारोगा से मुकाबला करना बडी बात थी, तो मामा मना भी नहीं कर सकते थे। लिहाजा दारोगा के पास मुकाबले के लिए मामा की विस्तृत जानकारी पेठा दिया गया। दारोगा तो ऐसे जांबाज को खोज ही रहा था, लिहाजा उसने अगले ही दिन सुबह दस बजे का समय मुकर्रर कर दिया। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">गांव के लोगों के हुजूम के साथ मामा ठीक दस बजे थाने पहुंचे। दारोगा ने लोगों की भीड देखकर अंदर ही अंदर प्रफुल्लित हो रहा था कि मुकाबला बहुत ही जोरदार होगा। आगे आगे मामा और पीछे पीछे भीड। मामा को आते देखकर ही वह भांप लिया कि यही उनका प्रतिद्वंद्वी है। ज्यों ही मामा अपने दल बल के साथ थाने के प्रवेश द्वार में घुसे दारोगा वहीं से ही चिल्लाकर बोला। सिपाहियों रोको इन लोगों को। ये कौन लोग हैं जो थाने में घुसे चले आ रहे हैं। यह कहते कहते दारोगा भी भीड के नजदीक पहुंच गया। गुस्से में नथुने फुलाते हुए बोला कि यह थाना है, खाला का घर नहीं कि मुंह उठाए चले आ रहे हो। तुम कौन हो भाई भीड लिये थाने में चले आ रहे हो। मामा समझ गए कि दारोगा जानबूझ कर हम लोगों पर रौब गालिब कर रहा है। हुजूर मुझे घोघा बसंत कहते हैं। दारोगा ने कहा, बडा बढिया नाम है आपका। मामा कहां चूकने वाले थे। बोले, अगर मेरा नाम आपको बढिया लगा तो हुजूर यही नाम खुद ले लिया जाए। मामा का इतना कहना था कि दारोगा दोनों हाथ जोडकर मामा से बोला मैं आपसे मुकाबला नहीं कर सकता आज से आप मेरे गुरु हुए। दारोगा ने मामा के साथ गांव वालों की खूब खतिरदारी कर उन्हें विदा कर दिया। </span></strong>manoranjansinghhttp://www.blogger.com/profile/16077292512135336468noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8764736367935752273.post-31311542817047349482010-02-06T06:06:00.000-08:002010-02-24T21:54:54.814-08:00गुडडू का स्वयंबर<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiNhPQSrJgtC5ahil89dS1pF1rNgRs7fkh8qhE2fFXC3aWJaTAJ6SSSkBE846YN-QADGZvEDJ7VJKC_8LuCCX7L0sQiZ3EYbQd6R-Uu_p8Ft0hWjQJfa6ptu9s4TtZP316rLBeQfU6X5v0/s1600-h/guddoo1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" kt="true" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiNhPQSrJgtC5ahil89dS1pF1rNgRs7fkh8qhE2fFXC3aWJaTAJ6SSSkBE846YN-QADGZvEDJ7VJKC_8LuCCX7L0sQiZ3EYbQd6R-Uu_p8Ft0hWjQJfa6ptu9s4TtZP316rLBeQfU6X5v0/s320/guddoo1.jpg" /></a></div><br />
<strong><span style="color: blue;">गुडडू की शादी को लेकर बीजी पंडित का चिन्तित होना लाजिमी है। दोनों भाइयों सीताराम चाचा और जंग बहादुर भाई का अकेला वारिस है गुडडू। (याद दिला दें सीताराम चाचा रिश्ते में बीजी के भाई लगते हैं, लेकिन जगत चाचा की उपाधि से सुशोभित सीताराम चाचा को पंडित भी समूचे गांव वालों की तरह चाचा ही कहते हैं) कुल के इस इकलौते चिराग गुडडू की अगर शादी नहीं हुई तो इस वंश का दीया ही बुझ जाएगा। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">जंग भाई और भौजी से तीन बेटियों के बाद तो आंगन में गुडडू की किलकारी गूंजी थी। बहुत दुलार में पला है गुडडू। जब वह हाईस्कूल में था तब उसका पढाई से मन उचट गया। जब वह दो दिन स्कूल नहीं गया तो जंग भाई ने पूछा था कि तुम स्कूल क्यों नहीं जा रहे हो। गुडडू ने पढाई से मन उचटने की बात बताई तो एलान ए जंग हुआ कि चलो नहीं मन है तो पढाई लिखाई छोडो। तुम्हे किस बात की कमी है। कुछ भी नहीं करोगे तो भी राजकुमारों की तरह रहोगे। चाचा ने गुडडू की पढाई छोडने का विरोध किया तो जंग भाई ने यह कहकर चाचा को समझा लिया था कि भईया, हम दोनों के बीच में एक ही तो संतान है। नहीं पढेगा तो क्या हो जाएगा। जीवन भर दूध भात खाएगा हमारा गुडडू। नतीजा यह हुआ कि गुडडू कक्षा 8 पास और 9 फेल है और ताज्जुब तो यह है कि गुडडू को भी इस बात का कोई मलाल नहीं है। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">दरभंगा से जब पहली बार तिलकहरू आए थे तो उनकी आव भगत में कोई कमी नहीं की गई थी। हलुआ, गुलाबजामुन और पकौडी चाय से नाश्ता कराने के बाद खाने में भौजी ने खास कचौडी और मालपुआ बनाईं थीं। मेहमानों को भोजन परोसते समय बब्बन भांट की जोरू ने मंगल गीत गाए गए थे। हमारे यहां तिलकहरुओं को खिलाते समय गाली गाने का भी रिवाज है। भौजी ने बब्बन की जोरू को अपने होने वाले समधी के लिए फरमाइशी गाली गवाईं थीं। इसके एवज में होने वाले समधी ने बब्बन बो को 51 रुपये का निछावर भी दिया था। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">अब तक तो सबकुछ ठीक चल रहा था। लेकिन भोजनोपरांत लडकी के पिता ने गुडडू के स्कूल का नाम क्या पूछ लिया, सारा खेल ही चौपट हो गया। उन्होंने गुडडू को अपने पास बुलाकर पूछा कि बेटा आपका स्कूल का भी नाम गुडडू ही है या और कुछ। गुडडू ने कहा, नहीं मेरा स्कूल टा नाम टमलाटर है। पढी लिखी और सुघर बेटी के लिए तोतला दामाद कौन पिता पसंद करेगा। दरभंगा वाले यह कहकर विदा हुए कि जल्दी ही पंडित जी से साइत (मुहूर्त) निकलवाकर खबर करेंगे, लेकिन 11 साल हो गए आज तक कोई खबर लेकर नहीं आया। तब से लेकर दो साल पहले तक तिलकहरू आते जाते रहे, लेकिन गुडडू को अपनी बेटी देने को कोई तैयार नहीं हुआ। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">अब बीजी ने प्रतिज्ञा कर ली है कि कुछ भी हो वह चाचा को किसी तरह मनाकर गुडडू का पाणिग्रहण संस्कार इस साल जरूर कराएगा। वह इस कुल के चिराग को हर कीमत पर जलाये रखेगा, भले ही आंधी पानी आए इसे बुझने नहीं देगा। एक दिन उसे चाचा अकेले मिल गए। बीजी इस मौके को गंवाना नहीं चाहता था। इसलिए बिना किसी भूमिका के चाचा से पूछ ही लिया। बताइए चाचा गुडडू की शादी कब कर रहे हैं। बिना किसी प्रसंग के बीजी के इस सवाल के बारे में चाचा ने तो कल्पना भी नहीं की थी। पंडित फिर गुडडू की शादी को लेकर बैठ गई। नहीं चाचा इस बार हमको माकूल जवाब चाहिए, क्योंकि यह एक खानदान के खत्म हो जाने जैसे गंभीर मसले से जुडा हुआ सवाल है। क्या बात करती हो पंडित, लडका लडकी में कोई भेद नहीं है। जंग बहादुर की तीन तीन लडकियां हैं। उनके बच्चे हैं। क्या वो सब इस खानदान के चश्मो चिराग नहीं हैं। देखो पंडित हम जंग बहादुर के बच्चों के ताउ हैं। हम उनके मुखिया हैं, पालक हैं सामंत नहीं। परंपराओं को तब तक ही ढोना चाहिए जब तक वह लोगों के लिए छाते का काम करे। किसी भी क्रूर और अधिनायकवादी परंपरा को नकार देना चाहिए। हमारे लिए चारो बच्चे बराबर हैं। हमारे लिए गुडडू और उसकी तीन बहनों में कोई अंतर नहीं है। तुमको पता नहीं है क्या कि नेहरू परिवार किससे चल रही है। अरे घोघाबसंत इंदिरा से। जहां तक गुडडू की शादी की बात है तो उसकी शादी होनी चाहिए। हम भी चाहती है कि घर में एक बहू आए। लेकिन क्या करें, कोई लडकी वाला तैयार ही नहीं हो रही है। सीता और द्रौपदी की तरह लडकी होती तो उसका स्वयंवर भी कर लेती। आसपास के दस बीस गांवों में न्योता पेठाती, लेकिन इसका हम क्या करें, स्वयंवर भी तो नहीं कर सकते। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">बस बीजी को तो इसी समय का इंतजार था। चाचा नारद बता रहा था कि सिसवन (बिहार का एक गांव) में लुकराधी सिंह की एक बेटी है। वह एक आंख से भैंगी है। गुडडू की तरह उसकी भी कई शादियां तय होने के बाद कट गई। वह 27 साल की हो गई है। अपने गुडडू से चार साल छोटी है। जोडी एकदम फीट बनेगी। आप कहते तो नारद से लुकराधी बाबू के यहां संदेशा पेठवा देता। चाचा ने बहुत जोर से ठहाका लगाया ओर बोले लुकराधी की बेटी है तो भैंगी ही होगी। (भोजपुरी का शब्द है लुकराधी। इसका मतलब होता है खुराफाती) खैर लुकराधी बाबू को भी यह रिश्ता पसंद आया। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">शादी का दिन तय हो। जंग भाई के पांव जमीन पर पड ही नहीं रहे थे। बारात का न्योता आसपास के 20 गांवों में भेजा गया। अंग्रेजी बाजा के अलावा गोडउ (हुरका), पखावज, डफरा और ढोल ताशे वालों को भी बुलाया गया था। घुडदौड के लिए घोडा, हाथी और उंट का भी इंतजाम था। रात के लिए गनेश भांड की नौटंकी पार्टी को पूरे 16 हजार देकर लाया गया था। चाचा कोई कसर नहीं छोडना चाहते थे। लेकिन लोगों की उत्सुकता इस शानदार बारात से अधिक दुल्हा और दुल्हन को लेकर थी। नारद नाई के लिए चाचा ने खास पीले रंग की धोती और सिल्क का कुर्ता सिलवाया था। जब मडवे में वैवाहिक संस्कार चल रहा था, तब बधू पक्ष का नाई नारद को बातों का चिकोटी काट रहा था। जब वर वधू ने सात फेरे पूरे किये तो लडकी पक्ष के नाई ने नारद की ओर मुखातिब होकर कहा, ठाकुर जी भैंगी ने वर जीत लिया, उसके लगातार शब्दवाणों से परेशान नारद ने कहा, ठीक कहा भइया, लेकिन वर बोले तो जानूं।</span></strong><br />
manoranjansinghhttp://www.blogger.com/profile/16077292512135336468noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8764736367935752273.post-60673249499867240412010-02-05T07:51:00.000-08:002010-02-24T23:34:42.838-08:00टमाटर खाओ<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgCgb56Vn5M4C3qEMSPFZCpqWiWiUPOO4KWEu0cQ8VIx3Im6ZB_kDtOx_KGMw8nxd9teJZfpen9SaP2aeYYWEKjMJmFmRUjep-2s2rcZEy1cblqzCFirI4tLANYM3XyaOjSYDUJx43-mrg/s1600-h/tomato1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"></a><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgQJFwuV0dgFgeUDL6OtWuhhU_Ab7rdQZgntxxyyubHK1CIoNbkJ2bSOC4FUEbDKQceCWNicrEvzLUZOsQ3LyAaHPhtBsmg9OCiN1djg2W1WCgycUsO0t-ovmHesGwBxamUhLfjM6lvjF4/s1600-h/tomato1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" kt="true" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgQJFwuV0dgFgeUDL6OtWuhhU_Ab7rdQZgntxxyyubHK1CIoNbkJ2bSOC4FUEbDKQceCWNicrEvzLUZOsQ3LyAaHPhtBsmg9OCiN1djg2W1WCgycUsO0t-ovmHesGwBxamUhLfjM6lvjF4/s320/tomato1.jpg" /></a></div><br />
<strong><span style="color: blue;">सीताराम चाचा का भतीजा है गुडडू। मुंबई गया था कमाने। कल ही गांव आया है। जबसे उसके पांव गांव में पडे हैं, तबसे ही चाचा के मकान के आजू बाजू वालों को कभी मनोज तिवारी, कभी कल्पना, कभी निरहुआ तो कभी मालिनी अवस्थी के गानों का रसास्वादन हो रहा है। सुबह पांच बजे से लेकर रात 11 बजे तक उसका बाजा फुल वैल्यूम में मुतवातिर बज रहा है। वहां से आते जाते लोगों को पता है कि गुडडू आ गया है। चार महीने की बेसुरी शांति के बाद फिर टोला गुलजार हो गया है। अब फगुआ तक सीताराम चाचा के टोला में संगीत की स्वरलहरी बहेगी। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">वैसे तो गुडडू के पास गिरजा देवी की ठुमरी, शारदा सिन्हा की कजरी, नुसरत फतेह अली खान के सूफी और गहमरी के निर्गुण गानों का बेहतरीन कलेक्शन है, लेकिन अब वसंत में होरी, जोगीरा और चैती की ही बहार रहेगी। सीताराम चाचा को निर्गुण पसंद हैं। इसलिए गुडडू सुबह की शुरूआत ..धोखा होई गा बालम उमरिया बचकानी ... (निर्गुण) से ही करता है। बीजी, बलेसर, नारद और जुम्मन मियां अलग अलग तरह के संगीतों के कद्रदान हैं। बीजी को मालिनी अवस्थी के गाने अच्छे लगते हैं तो बलेसर के कानों को मनोज तिवारी का बगल वाली... सुहाता है। जुम्मन मियां सूफी गानों के शौकीन हैं तो नारद चाहते हैं कि निरहुआ के ही गाने हर समय बजते रहें। गुडडू के लिए सबको संतुष्ट रखना कम जोखिम का काम नहीं है, लेकिन उसको पता है कि इन संगीत प्रेमियों को कैसे साधा जाता है। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">लेकिन इतना बडा संगीत प्रबंधक गुडडू एक मसले पर बहुत ही अभागा है। 31 साल के गुडडू के सारे दोस्त बाप बन गए हैं, लेकिन असंख्य देवी देवताओं की चौखट चूमने के बाद भी आज तक उसके हाथ हल्दी नहीं लगी। शादी नहीं होने से वह गांव में हमेशा उपहास का किरदार बन जाता है। अब तो छोटे छोटे बच्चे भी उसका मजाक उडाते हैं। हालांकि उसके चाहने वालों की भी गांव में कोई कमी नहीं है। इन सबकी संवेदना सदैव गुडडू के साथ रहती है। कोई कहता है शंकर जी की पूजा करो, शादी जरूर होगी। एक सौ बेलपत्र पर राम राम लिखकर लगातार सवा महीने तक भोला बाबा पर चढाओ। यह लग्न बांव (खाली) नहीं जाएगा। जितने मुंह उतने शादी के तरीके। 20 साल का था तब से आजतक कई बार सवा सवा महीने भोला बाबा को प्रसन्न करने की कोशिश कर चुका है लेकिन पिछले 11 सालों से आज तक भोले बाबा भी नहीं पसीजे। डीह बाबा को पीठा (गुंथा हुआ आटा) और काली माई को सात चुनरी और सात कडाह भी चढा चुका है, लेकिन इनका भी आशिर्वाद गुडडू को नहीं मिला। कुलदेवी सती के चौरा को तो सुबह शाम पूजने जाता है, लेकिन वहां से आज तक निराशा ही हाथ लगी। पहले तो उसको देखने के लिए तिलकहरू (लडकी वाले) भी आते थे, अब तो वो भी नहीं आ रहे हैं। </span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">बीजी पंडित का मानना है कि गांव में बहुत बियहकटवा हैं, हो न हो उसी में से एक का शातिर दिमाग गुडडू की शादी नहीं होने देने के लिए चल रहा है। उसने अपने जासूसों के जरिये पता कर लिया है कि वह आदमी कौन है। चाचा को बीजी के इस बात पर कोई भरोसा नहीं होता। कभी उन्होंने उस तथाकथित बियहकटवा का नाम नहीं पूछा। चाचा को पता है गुडडू तो गांव भर के लोगों का दुलारा है। भला कौन नहीं चाहेगा कि गुडडू की शादी हो। चाचा जानते हैं कि गुडडू की शादी क्यों नहीं हो रही है। ज्यों ही बीजी गुडडू शादी पुराण शुरू करते हैं चाचा बात ही बदल देते हैं। चुप हो जाओ पंडित तुम भी बेसिर पैर की बात लेकर बैठ जाती हो। तुमको दुनिया में सबसे जरूरी काम गुडडू की शादी ही लगता है क्या। अरे दुनिया को छोडो गांव में ही चिन्ता करने के और भी कई वजहें हैं। इन वजहों पर तो तुम्हारी ध्यान नहीं जाती, लेकिन तुमको यह जरूर पता होती है कि पतरुआ की पतोहू का किससे लफडा चल रही है। सोते समय देवनाथ तेली के उपर गोबर किसने फेंकी। पिछले 15 सालों से समझा रही हूं कि पंडित अपनी ये सारी कुआदतें छोडो, लेकिन तुम हो की कुत्ता की पूंछ बन गई हो। कितना भी सीधा करो सीधा होती ही नहीं हो। </span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">खैर, असल बात पर आते हैं। गुडडू का स्कूल का नाम कमलाकर है। पांच फुट ग्यारह इंच का गबरू जवान है। खाते पीते घर का है, इसलिए देखने में सौ लडकों में अकेले दिखता है। लेकिन सुनने में उतना ही खराब। एक बार एक भिखारी सीताराम चाचा के घर भीख मांगने आया। दरवाजे पर गुडडू बैठा था। भिखारी ने दर्जनों आशीष उडेलते हुए बोला बाबू दो दिन से खाया नहीं हूं। थोडा खाने को मिल जाए। भूखे का पेट भरने से भगवान भी आपको आशिर्वाद देंगे। गुडडू कर्मयोगी है। अकेले का पेट भरने के लिए भगवान ने घर में सब कुछ दिया है। फिर भी वह साल में दो बार मुंबई कमाने जरूर जाता है। एक कर्मयोगी के सामने भिखारी था, सो उपदेश के बोल फूट पडे। बोला भगवान ने मजबूत दो हाथ पैर दिये हैं। भीख मांगते शर्म नहीं आती। जाओ टमाटर खाओ। </span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">उन दिनों बाजार में 40 रुपये किलो टमाटर बिक रहा था। भिखारी ने उपर से नीचे तक गुडडू को देखा और बोला क्या बाबू साहब भिखारी से मजाक कर रहे हैं। अगर टमाटर खाने की औकात होती तो भीख क्यों मांगता। अरे दो रोटी ही तो मांग रहा हूं। दे दीजिए भगवान आपका भला करेंगे। फिर गुडडू बोला यहां से जाओ और टमाटर खाओ। भूखे पेट भिखारी गुडडू के इस सुझाव पर अंदर ही अंदर पक रहा था। एक भिखारी से ऐसा मजाक। वह गुस्से में बोला बाबू साहब दो रोटी नहीं देना है तो मत दीजिए, लेकिन मेरे जैसे भूखे नंगे को इतना महंगा सुझाव भी मत दीजिए। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">भिखारी अभी बोल ही रहा था कि चाचा कहीं से घुमते घामते वहां नमुदार हो गए। उन्होंने एक भिखारी को अपने दरवाजे पर नाराज देखा तो पूछ बैठे क्या बात है भाई, क्यों नाराज हो रही हो। भूखे पेट भिखारी का गुस्सा देख्ाने लायक था। उसने कहा क्या बताउं बाबू साहब, इस गांव में भी अजब गजब के लोग हैं। इस महंगाई के जमाने में भिखारी को सुझाव दे रहे हैं कि टमाटर खाओ। बताइए मेरी औकात 40 रुपये किलो टमाटर खाने की होती तो मैं भीख मांग रहा होता। चाचा की समझ में पूरा माजरा आ गया। उन्होंने गुडडू से कहा कि एक थाली में इसको भरपेट खाने भर का रोटी, चावल, दाल और सब्जी ले आओ। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">गुडडू अंदर गया तो चाचा भिखारी को राज की बात बताने लगे। भाई तुम्हारी नाराजगी भी वाजिब है और गुडडू का सुझाव भी सोलह आने सच। दरअसल गुडडू क को ट बोलता है। मेरा भतीजा बडा ही कर्मठी है। उसको हाथ पैर से सही सलामत लोग भीख मांगकर खाते अच्छे नहीं लगती। इसलिए तुमसे कह रही थी कि कमाकर खाओ। </span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">इस बार बीजी ने ठान लिया है कि अगले लगन में गुडडू का पार घाट लगाकर ही दम लेंगे। पंडित को पता है कि चाचा के बिना हाथ लगाए गुडडू जैसे दुल्हे का पार लगना मुश्किल है। गुडडू तो दुल्हों की तीसरी श्रेणी में पहुंच चुका है। गांव में लोग बताते हैं कि दुल्हों की तीन प्रजातियां होती हैं। पहली प्रजाति 18 से 25 साल के आयुवर्ग की होती है, जिसे वर कहते हैं। इस प्रजाति की शादियां धकाधक होती हैं। दूसरी होती है 26 से 30 वर्ष वालों की, जिनको बरनाठ कहते हैं और इनकी शादी बहुत मेहनत के बाद होती है। तीसरी प्रजाति होती है झरनाठों की। इस प्रजाति के दुल्हे 30 साल से उपर वाले होते हैं और गांवों में ये विरले पाये जाते हैं। अगर इस प्राजाति के दुल्हे की शादी हो जाए तो समझिये पत्थर पर दूब उग आया है। बीजी जानते हैं कि इसी प्रजाति का गुडडू है और इसकी शादी कराना पत्थर पर दूब उगाना तो नहीं लेकिन लोहे का चना चबाने जैसा है।</span></strong>manoranjansinghhttp://www.blogger.com/profile/16077292512135336468noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8764736367935752273.post-57481816986722039012010-01-29T00:03:00.000-08:002010-02-24T23:26:34.691-08:00पंडिताइन उल्टा बहती हैं<div style="text-align: left;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh33wETCv4OGOoQp_UysfwmaJl_RhUkLM0Pcf60pDy_MH4PYAb9-lWmNANy_QIGRAKnrWuDyalqigEqlppljZh0bOSNf8WqqUZpn502OGk1kpxxZG-migZdE0LEfpTyxxnTNAd1iZLBo1c/s1600-h/panditain4.bmp" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" kt="true" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh33wETCv4OGOoQp_UysfwmaJl_RhUkLM0Pcf60pDy_MH4PYAb9-lWmNANy_QIGRAKnrWuDyalqigEqlppljZh0bOSNf8WqqUZpn502OGk1kpxxZG-migZdE0LEfpTyxxnTNAd1iZLBo1c/s320/panditain4.bmp" /></a></div><br />
<b><span style="color: blue;">बीजी पांडे आज सुबह चाचा की कचहरी में गैरहाजिर थे। बलेसर, जुम्मन और नारद तो यह मानकर बैठे थे कि चच्ची की चाय से पहले बीजी जरूर आ जाएंगे। क्योंकि पंद्रह साल पहले जिस दिन से सीताराम चाचा गांव में स्थाई रूप से रहने आए तब से लेकर आज तक बिना नागा उनके चारों चकोरों ने सुबह की चाय चच्ची के हाथ की पी है। चच्ची ने हाथ में केतली लिये घर के दरवाजे पर आकर नारद को हाक लगाया। चच्ची ने नारद के हाथ में केतली के साथ साथ पांच प्याले भी थमाए। नारद ने रोज की तरह पांचो प्यालों को लबालब चाय से भरा और एक एक कर चाचा, जुम्मन और बलेसर को देने के बाद एक प्याला खुद ले लिया। </span></b><br />
<br />
<b><span style="color: blue;">बीजी का पांचवा प्याला आज उदास था। उसको पीने वाला आज नहीं था। उसमें से भाप निकल रहा था। जाडा, गर्मी, बरसात ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी एक के बगैर वहां चाय की महफिल जमी हो। चाचा ने बलेसर से पूछा, तुम तो बीजी के घर से ही होकर आती हो। अक्सर तुम दोनों साथ ही आती हो, तो आज क्या हो गया कि बीजी पंडित नहीं आई। बलेसर ने बताया कि आते समय महराज जी (हमारे गांव में पंडिजी को महराज जी कहा जाता है) दिखाई नहीं दिये, तो मैने सोचा आज जल्दी हाथ मुंह धोकर कउडा पहुंच गए होंगे। </span></b><br />
<br />
<b><span style="color: blue;">चाचा ने बारी बारी से जुम्मन और नारद से भी तस्दीक किया कि पंडित के बारे में तुम लोगों को कुछ जानकारी है कि नहीं, लेकिन दोनों ने नावाकिफी जाहिर कर दी। चाचा के माथे की सलवटें गहरी हो गईं। ऐसा तो नहीं इस भीषण ठंड में पंडित बीमार पड गई हो। चाय का सुडुक्का मारने में मगन नारद को चाचा का आदेश मिला कि वह चाय खत्म होते ही बीजी के घर जाकर उनका हाल चाल ले और अगर चलने फिरने लायक हों तो साथ में लेकर आए। </span></b><br />
<b><span style="color: blue;">नारद जितना चाय पी चुका था उसे ही अपना भाग्य मानकर चाचा के आदेश का पालन किया। चाचा के घर के पिछवाडे चौथा घर बीजी पंडित का है। वह जब उनके दरवाजे पहुंचा तो वहां महराज जी को नहीं पाकर घर के भीतर हांक लगाया। महराज जी.. महराज जी... ओ महराज जी....। अंदर से कोई जवाब नहीं मिला। नाई और पुरोहित का रिश्ता है नारद और बीजी में। इसलिए उसका उनके घर के अंदर भी आना जाना होता था। नारद सोचने लगा, इससे पहले तो एक बार हांक लगाने पर महराज जी के नहीं होने पर पंडिताइन आ जाती थीं, आज वो भी नहीं आ रही हैं। </span></b><br />
<br />
<b><span style="color: blue;">चाचा के अंदेशे पर नारद को अब भरोसा होने लगा। वह यह मानकर घर के अंदर खांसते खखारते पहुंच गया कि महराज जी ने खाट पकड ली है। उसने देखा कि पंडिताइन चुल्हे पर खाना बना रही हैं और उसके अंदर आ जाने से अनजान होने का स्वांग कर रही हैं। उसके हाथ हठात उठ गए और वह पंडिताइन की पैलग्गी (प्रणाम) करने के बाद पूछा कि महराज जी दिखाई नहीं दे रहे हैं। उनका मिजाज दुरूस्त नहीं है क्या। पंडिताइन ने कुछ जवाब नहीं दिया, बस हाथ के इशारे से बता दिया कि पंडित उस कमरे में हैं। नारद बिना देर किये उस कमरे में दाखिल हो गया। देखा बीजी बहुत उदास मन से खैनी मल रहे हैं। वाह महराज जी अकेले अकेले खैनी बन रही है। चेहरा उतरा हुआ है। बात क्या है, मिजाज हाथ में है कि नहीं। चाचा आपके नहीं आने से बहुत चिन्तित और परेशान हैं। आपको बुलाया है, जल्दी चलिए। </span></b><br />
<br />
<b><span style="color: blue;">खैनी का एक बीडा नारद की ओर बढाकर बाकी अपने होठों के हवाले कर बीजी धीरे धीरे बिछौना से उतरे और बिना कुछ बोले चल पडे। उनके पीछे पीछे नारद भी चला। बस कुछ ही क्षण में दोनों चाचा के कउडा पहुंच गए। उसको अचंभा हो रहा था कि बिना मतलब बोलने वाले महराज जी को आज हो क्या गया है। रास्ते में भी कुछ नहीं बोले। बीजी को आते देख चाचा खडे हो गए और पास आने पर उनको ऐसे गले लगाया जैसे बहुत दिनों का बिछुडा कोई अजीज मिल गया हो। यही चाचा की खूबी भी है। वह गांव के हर आदमी से बहुत अपनापा रखते हैं। किसी को भी गैर नहीं समझते। सबके सुख दुख में ऐसे शरीक होते हैं जैसे वो सारा सुख दुख उन्हीं का है। </span></b><br />
<b><span style="color: blue;">बीजी का उतरा चेहरा देखते ही चाचा यह जानने के लिए परेशान हो गए कि आखिर माजरा क्या है। ऐ पंडित तुम्हारे चेहरे पर बारह क्यों बज रही है। बिना बात के हंसने वाली और बिना लाग लपेट बोलने वाली पंडित तुम्हारे मुंह पर किसने पहरा लगा दिया है। बीजी की आंखों में आंसू भर आए। धीरे से बोले पंडिताइन से तंग आ गया हूं। बात बेबात झगडा करने पर उतारू रहती है। मन बहुत बेकल (बेचैन) हो रहा है। मन कर रहा है गांव छोडकर कहीं दूर चला जाउं। </span></b><br />
<br />
<b><span style="color: blue;">चाचा को लग गया मामला गंभीर है। चाचा के अनुभव बता रहे थे कि पंडित और पंडिताइन में जरूर कुछ लंबा लफडा हुआ है। इसका भी इलाज चाचा के पास है। अक्सर जब माहौल बोझिल होता है तो चाचा उसको हल्का करने के लिए अपने पिटारे से एक कहानी निकालकर सुनाने बैठ जाते हैं। अब तक उनकी जितनी भी कहानियां हमने सुनी है उसमें रोचकता के साथ साथ एक बडा संदेश भी होता है। चाचा ने कहा क्या पंडित इतनी सी बात पर तुम दुखी हुए जा रहे हो। दुनिया में तुमसे भी बडे दुखियारे हैं। एक उेसा ही वाकया सुनाओ रहा हूं, सुनो ... </span></b><br />
<b><span style="color: blue;">एक पंडित जी थे। वह अपनी पंडिताइन से बहुत दुखी रहते थे। क्योंकि पंडिताइन उनका एक भी कहा नहीं मानती थीं। पंडित जी अगर पूरब को पूरब कहते तो वह कहती आपको कुछ नहीं मालूम यह पश्चिम है। सूरज तो उधर से उगता है। अगर पंडित जी रात को रात कहते तो वह कहती इतना उजाला है और आप कह रहे हैं रात है। पंडित जी को जब कुछ बढिया खाने का मन करता तो पंडिताइन मोटी रोटी और सूखी सब्जी परोस देती। यानी पंडिताइन पंडित जी जो भी कहते या करते थे उसका उलटा ही पंडिताइन कहती और करती थीं। </span></b><br />
<br />
<b><span style="color: blue;">रोज रोज इन बातों को लेकर दोनों में झगडा होता रहता था। पंडिताइन अलग से रोज ताना देती कि अब तो आप भिक्षा मांगने से भी जी चुराने लगे हैं। आपके हाथ में बरक्कत ही नहीं है। पंडित जी बहुत दुखी हो गए थे। थक हारकर पंडित जी अपने एक दोस्त के पास गए और बोले, यार पंडिताइन ने मेरे जीवन को नरक बना दिया है। अत्याचार पर अत्याचार किये जा ही है। बताओ मैं क्या करूं। उसने कहा कि तुम भी पंडिताइन की तरह हो जाओ। उन्हीं के फार्मूले पर काम करो। सब कुछ उल्टा बोलो और करो। जब पूडी खाने का मन करे तो सत्तू मांगो। दिन को रात कहो। उत्तर को दक्षिण कहो। इससे सारी चीजें अपने आप ठीक हो जाएंगी। </span></b><br />
<br />
<b><span style="color: blue;">पंडित जी ने वही फार्मूला अख्तियार किया। शाम को आजमाने के लिए बोले पंडिताइन आज रात में मैं सत्तू खाउंगा। पंडिताइन ने कहा आप तो हमारी नाक कटवा के दम लेंगे। लोग सुनेंगे कि पंडिताइन रात में पंडित जी को सत्तू खिलाती है, तो क्या कहेंगे। आज पुडी खीर बनाएंगे और आपको तबियत से जिमाएंगे। मित्र से मिला फंडा काम आया। रात को पुडी खीर उडाने के बाद पंडित जी को रात में चैन की नींद आई। सुबह उठते ही नहा धोकर पंडित जी भिक्षाटन के लिए तैयार हुए। पंडिताइन ने उन्हें रोक दिया। पंडित जी आप कुछ दिन भिक्षाटन नहीं भी करेंगे तो चलेगा। घर में सब कुछ भरा पडा है। </span></b><br />
<br />
<b><span style="color: blue;">पंडित के मन में गुब्बारे फूटने लगे। अब उनके दिन रात ठीक से कटने लगे। कुछ दिन बाद पंडिताइन को लगा कि क्या बात है अब पंडित मेरी हर बात को मानने लगे हैं। अब किसी बात पर झगडा भी नहीं करते। यह उनकी कोई चाल तो नहीं। पंडिताइन को पंडित का सुख कैसे सहन होता। वह फिर पुराने ढर्रे पर आ गईं। पंडित के लिए वही चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात वाली स्थिति हो गई। </span></b><br />
<b><span style="color: blue;">फिर वह अपने मित्र के पास गए। मित्र ने कहा पंडित जी हरिद्वार में महाकुंभ लगा है। जाओ पंडिताइन को स्नान करा लाओ। हो सकता है कि गंगा जी के पवित्र जल से उनका मन भी निर्मल हो जाए। पंडित जी घर पहुंचे और पंडिताइन से बोले, सुनती हो हरिद्वार में महाकुंभ लगा है। मैं सोच रहा हूं अकेले जाकर स्नान कर आउं। पंडिताइन गुस्से से आग बबूला हो गईं। सारा पूण्य अकेले अकेल के लिए है और सारा पाप मेरे हिस्से। बहुत भाग्य से तीर्थ पर जाने का अवसर मिलता है। मैं भी चलूंगी आपके साथ। </span></b><br />
<br />
<b><span style="color: blue;">पंडित तो यही चाहते थे। शायद साथ चलने का उनका प्रस्ताव होता तो पंडिताइन जाती भी नहीं। तैयारी शुरू हो गई और कुछ दिन बाद दोनों हरिद्वार तीर्थयात्रा पर निकल गए। मकर संक्रान्ति को पहला स्नान था। पंडिताइन ने कहा चार बजे भोर में ही हम लोग गंगा के किनारे पहुंच जाएंगे, नहीं तो बाद में बहुत भीड हो जाएगी। </span></b><br />
<br />
<b><span style="color: blue;">तय समय पर दोनों गंगा किनारे पहुंचे और डुबकी लगाने के लिए गंगा में उतरने के लिए चले। पंडित ने कहा, पंडिताइन किनारे ही नहा लो अंदर नदी बहुत गहरी है। पंडित से यहीं भूल हो गई। पंडिताइन कहां उनकी बात मानने वाली। बोलीं, किनारे नहाएं हमारे दुश्मन। सारा पाप किनारे आकर लग गया है और आप कह रहे हैं मैं पाप में डुबकी लगाउं। यही बोलते बोलते पंडिताइन अंदर गईं और गंगा के तेज प्रवाह में बह गईं। </span></b><br />
<br />
<b><span style="color: blue;">प्रवाह पूरब की तरफ था और पंडित जी पश्चिम की ओर उनको पकडने दौडे। लोगों ने कहा अरे पंडित जी धारा तो पूरब की ओर है और आप पश्चिम की ओर उनको पकडने जा रहे हैं। पंडित जी ने कहा पश्चिम की ओर इसलिए जा रहा हूं कि हमारी पंडिताइन उलटा बहती हैं। इस कहानी का मैसेज यह है कि जो अपनों का कहा नहीं मानता उसका हस्र ऐसा ही होता है।</span></b><br />
<b><span style="color: blue;">चाचा की कहानी पर सभी हंसने लगे, लेकिन बीजी के चेहरे पर अब भी उदासी का ही डेरा था। चाचा ने अपना प्रयास विफल होते देख बीजी से बोले, पंडित दुनिया में तमाम देशों की बडी बडी समस्याएं बातचीत से हल हो जाती हैं। उनके आगे तुम्हारी समस्या तो बहुत छोटी है। जाओ पंडिताइन को मेरी यह कहानी सुनाओ और उनसे बात करो तुम्हारी सारी समस्या अपने आप खत्म हो जाएगी। बीजी पांडेय ने चाचा के नुस्खे पर अमल किया और फिर उनकी पारिवारिक जीवन पटरी पर चल निकला। </span></b></div>manoranjansinghhttp://www.blogger.com/profile/16077292512135336468noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8764736367935752273.post-50340344975873411372010-01-24T22:25:00.000-08:002010-02-19T08:16:23.059-08:00तीन कुत्ते<div style="text-align: center;"><span style="color: blue;"><br />
</span> </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi1r3qdXf_AHnt5JuNnPm38wyrNDg9Je4i4sSRCZgVnOqQuHU54YJ6JsYlkW8vGmH_JPiXOMGOMboCaH-0u_AZTJhVJ2A2ZBBPNv7a8IGWXryU-S9nNuvP6OkwxXOPsa8EJ0on6YL0ljKs/s1600-h/dog.bmp" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><span style="color: blue;"><img border="0" height="236" kt="true" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi1r3qdXf_AHnt5JuNnPm38wyrNDg9Je4i4sSRCZgVnOqQuHU54YJ6JsYlkW8vGmH_JPiXOMGOMboCaH-0u_AZTJhVJ2A2ZBBPNv7a8IGWXryU-S9nNuvP6OkwxXOPsa8EJ0on6YL0ljKs/s400/dog.bmp" width="400" /></span></a></div><strong><span style="color: blue;">हमारे गांव में तकरीबन बाइस हजार इंसान हैं। हर इंसान की अपनी एक कहानी है। अगर एक-एक की कहानी एक दिन में पूरा करूं तो भी इसमें साठ साल लग जाएंगे। ...और ऐसा इस जन्म में कर पाना मुझे संभव नहीं लगता। वैसे हमारे सीतराम चाचा के पास कहानियों का इतना बडा जखीरा है कि उसी को समेटने बैठूं और करीने से समेट ले जाउं, तो इतना ही हमारे लिए काफी है। </span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">चाचा की उनके हर उम्र की अलग और दिलचस्प कहानी है। जवानी के दिनों में हमारे सीताराम चाचा भी आज के युवा की तरह ही थे, जो हकीकत में कम और सपनों में ज्यादा जिया करते थे। ये ऐसे सपने होते हैं जो खुली आंखों से देखे जाते हैं। यह अलग बात है कि चाचा का जमाना कुछ और था। तब जीवन की रफ़तार इतनी तेज नहीं थी। तब कम्यूटर, मोबाइल, फर्राटा भरने वाली तेज गाडियों जैसे तेज रफ़तार के आधुनतम यंत्र भी नहीं थे। फिर भी जुम्मन, बीजी, बलेसर और नारद नामक चार चकोरों का मानना है कि उस समय भी इंसानी फितरत आज की तरह की ही थी। बातों का गोलमोल जवाब तब भी मिलता था और आज भी मिलता है। </span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">बीजी पंडित को इस विषय का ज्ञान कुछ ज्यादा ही है। उन्होंने साधिकार बताया कि यह परंपरा बहुत ही पुरानी है। चंद्रगुप्त के राजगुरु चाणक्य से जब कोई पूछता आचार्य जी आप कहां जा रहे हैं, तो उनका जवाब होता था, अभी आ रहा हूं। इस परंपरा के सबसे बडे वाहक के रूप में चाणक्य का ही नाम लिया जा सकता है, क्योंकि चाणक्य यह नहीं बताते थे कि वो कहां जा रहे हैं, अलबत्ता इस बात का आश्वासन दे जाते थे कि जा कहीं भी रहा हूं, लेकिन लौट कर जरूर आउंगा। </span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">जुम्मन ने कहा वैसे आमतौर पर ऐसी फितरत नेताओं की होती है। जो नेता बातों को गोल करने में जितना माहिर होता है, वह आज का सबसे बडा नेता है। इनको हमारे कस्बाई लोग श्रूड पॉलिटिशियन कहते हैं। चाचा का विचार इससे एक दम अलहदा है। उनका अपार अनुभव उनके विचार को और ताकत देता है। गोल मोल बातों पर उनके चार चकोरों की चर्चा और आगे बढने से पहले ही रूक गई। </span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">सीताराम चाचा ने हस्तक्षेप किया। बिना नाडे के पैजामा हो तुम लोग। बे सिर पैर की बात करते हो। कितना तजुर्बा है तुम लोगों के पास। मेरे सामने अभी तुम चारों बच्चे हो। बात गोल करने की फितरत केवल इंसानों में ही नहीं है। बेचारे नेता तो बिना वजह बदनाम हैं। बातें गोल तो कुत्ते भी करते हैं। इस बारे में मुझे एक कहानी याद आती है ...</span></strong><br />
<strong><span style="color: blue;"></span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">मोतिया, मोतीसरी और जग्गू तीन कुत्ते थे। जग्गू मोतिया और मोतीसरी का बेटा था। जाहिर है मोतिया सबसे तगडा, मोतीसरी थोडी दुबली और जग्गू सबसे कमजोर था। बहुत दिनों से गांव में कोई शादी नहीं हो रही थी। कोई मर भी नहीं रहा था। इसलिए बहुत दिनों से भोज-भात के लाले पडे थे। तीनों कुत्तों को सुस्वाद खाना खाए अरसा हो गया था। उनकी जुबान फीकी होने लगी थी। हालात यहां तक पहुंच गए थे कि उनके भौंकने में भी कुत्तागिरी कम आ पा रही थी। </span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">अचानक एक दिन शाम को बगल वाले गांव से बैंड बाजे की आवाज आई। तीनों को लग गया पडोस में आज कोई भोज-भात है। उनको उस गांव के कुत्तों से ईर्श्या होने लगी। तीनों ने कहा, आज तो उस गांव के कुत्ते दावत उडाएंगे और हम अभागे ऐसे ही रह जाएंगे। जैसे-जैसे शाम ढलने लगी तीनों के मुंह से लार बेजार होकर टपकने लगी। सबसे बडा होने के नाते मोतिया ने फैसला किया कि आज कुछ भी हो जाए हम लोग भी दावत उडाने चलेंगे। अब हमसे बर्दास्त नहीं होता। लोग यह मानने लगे हैं कि फीके मुंह भौंकने से हमारी कुत्तागिरी पर बटटा लग रहा है। वहां चलेंगे तो ना ना प्रकार के व्यंजन का भोग लगेगा। हमारे गांव में निकट भविष्य में किसी दावत की संभावना दूर दूर तक नहीं दिखती। घर के मुखिया का फैसला था, सो तीनों उस गांव की ओर कूच कर गए। </span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">जब उस गांव की सीमा पर पहुंचे तो तीनों के पांव अपने आप ठिठक गए। कुत्तों का भी उसूल है। दूसरे गांव के कुत्तों की सीमा में जाना अपने आप को दुश्मनों के चक्रव्यूह में अपने को झोंक देने से कम नहीं है। अपने घर में कुत्ते भी शेर होते हैं, इसका भान जग्गू को तो कम मोतिया और मोतिसरी को ठीक से हैं। तीनों के एक साथ दूसरे गांव में की सीमा में घुसते ही दूर से दिखाई दे जाने का खतरा था। इसलिए मोतिया ने कहा कि हम एक एक करके दावत उडाने जाएंगे। </span></strong><strong><span style="color: blue;">तय हुआ कि सबसे पहले जग्गू को भेजा जाएगा। अगर रिस्पांस ठीक रहा तो उसके बाद मोतिसरी और आखिर में मोतिया दावत उडाने जाएगा।</span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">तय योजना पर फौरन अमल किया गया और जग्गू को मौका ए दावत पर रवाना कर दिया गया। भगवान का नाम लेकर जग्गू चला। लेकिन वह अंदर ही अंदर कांप रहा था। अगर दुश्मन गांव के कुत्तों ने मुझे देख लिया तो मेरी छोटी जान के लिए यह सौदा बहुत महंगा पडेगा। अगर उनके घेरे में आ गया तो पता नहीं कहां कहां से नोचेंगे, मेरा बाप भी नहीं गिन पाएगा। खैर, दूसरे गांव में दावत उडाने के रिस्क भी तो हैं। हमारी बिरादरी के लिए यही एउवेंचर है कि दूसरों के घर में घुसकर खाओ और सही सलामत अपने ठिकाने पहुंच जाओ। </span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">इसी उधेड बुन में जग्गू दावते वलीमा वाली जगह पर पहुंच गया। वहां पहुच कर भगवान को लाख लाख लाख शुक्रिया अदा किया कि रास्ते में किसी दुश्मन ने मुझे नहीं देखा। चारो तरफ से कनात घिरी हुई थी। अंदर चहल पहल थी। घुसने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। वह कनात का चक्कर काटने लगा। एक जगह उसको कनात में एक सुराख दिखाई दी। सोचा मेरी काया छोटी है इसमें से निकल सकता हूं। पहली बार इस तरह के खतरनाक अभियान पर निकला था। एक सामान्य कुत्ता जितनी एहतियात बरत सकता है वो सब जग्गू कर रहा था। एहतियातन एक बार सूराख में सिर घुसाकर पहले उसने हालात का जायजा लिया। उसको जायजा लेते उस इंसान ने देख लिया, जिसको कुत्तों को कनात के भीतर नहीं फटकने देने की जिम्मेदारी दी गई थी। </span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">गांव में कहीं भी भोज का आयोजन होता वहां कुत्तों से रख्ावाली की जिम्मेदारी उसे ही निभानी पडती थी। लोग बताते हैं कि उसने कुत्तों के स्वभाव पर शोध किया था। जग्गू के झरोखे से जायजा लेने के बाद वह समझ गया कि वह कुत्ता फिर उसी झरोखे से घुसने की कोशिश करेगा। हाथ में एक डंडा लेकर वह झरोखे के पास मोर्चा ले लिया। जग्गू तो निश्िचन्त था कि उसके यहां होने की न तो किसी कुत्ते को और न ही किसी इंसान को भनक है। वह उन्मुक्त होकर ज्यों ही अपना सिर कनात के झरोखे में डाला अचानक एक डंडा बहुत जोर से उसके सिर पर पडा... फटाक...। </span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">अचानक आई इस विपदा का उसे इलहाम तक नहीं था। चोट बहुत तेज थी। जग्गू वहां से कांय कांय करते भागा। वह जब अपने मां बाप के पास पहुंचा तो दोनों ने उसे घेर लिया। पूछा क्या हुआ बेटा। जग्गू ने कहा मुझे तो वहां जाते ही मिल गया। </span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">इस सकारात्मक जवाब को सुन मोतिसरी की बांछे खिल गईं। उसने सोचा इतना छोटा पिल्ला जब दावत उडा सकता है तो मुझे कौन रोक सकता है। मन ही मन पुडी पुलाव के स्वाद को याद कर वह मोतिया और जग्गू से इजाजत लेकर दावत स्थल के लिए रवाना हो गई। </span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">इस तरह के दावतों का बहुत अनुभव था उसे। लंबी लंबी छलांगे मारती हुई वह वहां पहुंच गई। उसको रास्ते में उस गांव का कोई कुत्ता भी नहीं मिला। इसलिए मन से बचा खुचा भय भी जाता रहा। उसने सोचा कि क्यों न जहां भोजन तैयार हो रहा है उधर ही चलकर दावत उडा लिया जाए। </span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">जहां पुडी तली जा रही थी, वह वहीं पहुंच गई। हलवाई ने देखा एक कुत्ता भोजनालय में घुस आया है। किसी ने देख लिया तो हमारा बनाया खाना कोई नहीं खएगा। उस कुत्ते को जल्दी से भगाने की गरज से पुडी के खौलते तेल को एक कलुछे से उसके उपर फेंक दिया। तेल से जली मोतिसरी कांय कांय करते वहां से भागी। </span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">रास्ते में उसने सोचा कि अगर मैने सही बात बता दिया तो जग्गू और मोतिया मेरे उपर खूब हंसेंगे। एक छोटा सा बच्चा दावत उडाकर आ गया और इनको देखो एक पूडी तक के दर्शन नहीं हुए। वह कांय कांय करना बंद कर अचानक चुप हो गई। जब वह ठिकाने पर पहुंची तो दोनों ने पूछा क्या हुआ। उसने बताया कि मुझे तो गरम गरम मिल गया।</span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">इतना सुनना था कि मोतिया मगन होकर बिना दोनों को कुछ बताये दावत उडाने चल पडा। उसकी चाल में गजब का आत्मविश्वास दिख रहा था। वैसे भी शरीर से भरा पूरा था, इसलिए उसकी चाल को देखकर यह लग रहा था कि कुत्ता नहीं शेर जा रहा है। जब वह दावत वाली जगह पर पहुंचा तो पहले सीना चौडाकर उस पूरे जगह का मुआयना किया। शरीर से हट़टा कटटा होने के नाते उसको दो चार पिददीनुमा कुत्तों का भय भी नहीं सता रहा था। </span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">पूरे दावत स्थल का मुआयना करने के बाद उसे लगा कि इधर उधर जाने से बेहतर है भंडार घर में चलकर ही लजीज व्यंजन का स्वाद लिया जाय। कुत्ते का स्वभाव, जब रोक टोक नहीं हुआ तो मनमानी पर उतर आया और घुस गया भंडार घर में। </span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">डंडे वाला कमाल का था। उसकी निगाह से किसी कुत्ते का बच पाना नामुमकिन था। उसने एक गबदू (भरे पूरे शरीर वाले) कुत्ते को भंडार में घुसते देख लिया। डंडा लेकर मोतिया के पीछे भंडार घर में घुसकर दरवाजा बंद कर लिया। अंदर पहुंचते ही मोतिया पर डंडे का प्रहार शुरू हो गया। </span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">मोतिया डंडे की मार खाकर कभी पूडी पर गिर रहा था तो कभी सब्जी पर। एक डंडा तो इतना जोर से पडा कि वह रायते वाले बडे से भगौने में जा गिरा। इसी बीच खाना खिलाने वाले कोई सज्जन सब्जी लेने आ गये। दरवाजा ज्यों ही खुला मोतिया रास्ता पाकर तुरंत कांय कांय करते भाग निकला। </span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">जब वह मोतिसरी और जग्गू के पास पहुंचा तो दोनों ने पूछा कि क्या हुआ। उसने सोचा कि सही बात अगर बता दिया तो इन दोनों के सामने उसकी नाक कट जाएगी। उसने अपनी बात में रूआब लाते हुए बताया, मुझे तो आने ही नहीं दे रहे थे। कोई कह रहा था, पूडी खाओ, कोई कह रहा था सब्जी खाओ। एक सज्जन ने तो इतना रायता खिला दिया कि मेरे शरीर पर भी फैल गया। तुम लोग देख नहीं रहे हो। </span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">मोतिया इतना पिटा था कि अंदर से उसे किसी और खतरे का अहसास हो रहा था। उसने कहा, अब जल्दी से अपने गांव भाग चलो। मुझे लगता है कि हमारे आने की खबर दुश्मन गांव के कुत्तों को हो गई है। दोनों भी तो जल्दी से अपने गांव पहुंचना चाह रहे थे। बिना खाए मन में ही अपने शरीर पर इंसानों के ढाये सितम को याद करते तीनों अपने गांव की ओर चल पडे। </span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">सीताराम चाचा ने कहानी खत्म कर जुम्मन मियां, बीजी पांडेय, नारद नाई और बलेसर धोबी की ओर मुखातिब होकर बोले। देख लिया बच्चों। कुत्ते भी गोल मोल जवाब देते हैं। यह फितरत केवल इंसानों में नहीं है। इतनी लंबी कहानी के दौरान बीजी पंडित को कई बार खैनी की तलब लगी, लेकिन चाचा को बीच में टोकना ठीक नहीं था। चाचा की वाणी ने ज्यों ही विराम लिया बीजी उनसे चुनौटी मांगकर खैनी चूना में तालमेल बिठाने लगे। </span></strong><br />
<span style="color: blue;"></span>manoranjansinghhttp://www.blogger.com/profile/16077292512135336468noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8764736367935752273.post-85765589288511920642010-01-22T02:37:00.000-08:002010-02-19T08:21:10.306-08:00वाचमैन चाचा<strong><span style="color: blue;">सीताराम चाचा सहारनपुर पेपर मिल के दरवान थे। रिटायर होने के बाद पिछले पंद्रह एक सालों से गांव में रह रहे हैं। सहारनपुर मिल की कालोनी में ही उनका रहवास था। चच्ची गांव में रहती थीं। तीज त्योहार होली दिवाली में ही चाचा का गांव आना होता था। आज सुबह की चाय खत्म होते ही सीताराम चाचा अपने चारो चकोरों की ओर मुखातिब हुए। मराठी मानुस से आहत चाचा अपनी वेदना को कब तक दबाए बैठते। उन्होंने अपनी एक आपबीती सुनाने बैठ गए। बातचीत की भाषा समाजवादी है। आप भी सुनिये ...</span></strong><br />
<strong><span style="color: blue;">बात सतहत्तर के इमरजेंसी के दौरान की है। एक दिन क्या हुआ कि मैं मिल के गेट पर पहरा दे रही थी। एक आदमी बार बार गेट तक आ रही थी और लौट जा रही थी। मुझे लगा कि अपने ही किसी स्टाफ का कोई रिश्तेदार या भाई होगा। इसलिए उसको बुलाकर पूछी, ऐ भाई किससे मिलना है। वह बोला, साहब हम गांव से आए हैं और मुझे नौकरी की बहुत दरकार है। घर में मेहरी और चार छोटे छोटे छौने हैं। बाढ में खेती तबाह हो गई है। आपकी किरपा हो जाए तो हमारा भला हो जाए। मैं और मेरे बच्चे आपको आशिर्वाद देंगे। </span></strong><br />
<br />
<strong><span style="color: blue;">उस आदमी की इस उम्मीद से मेरा दिमाग चकरा गया। भला एक दरवान की क्या औकात कि किसी को मिल में नौकरी दिला दे। एक बार मन हुआ कि उसको सही बात बताकर यहां से चलता कर दूं, लेकिन वह गांव से आया हुआ था और पहली बार मुझे किसी ने साहब कहा था। इसलिए हमने उसे सामने वाली छेदी की चाय की दुकान पर बैठने को बोल दिया और सोचने लगा कि इसका क्या इंतजाम करूं।</span></strong><br />
<strong><span style="color: blue;">वैसे तो मिल में कई दरवान थे, लेकिन हम चार लोग ऐसे थे जो अकेले ही रहते थे। खुद ही खाना बनाते थे और बर्तन भी मांजते थे। खाना बनाने और बर्तन धोने को लेकर हम लोगों में अक्सर लडाई हो जाता था। कई बार बात इतनी बढ जाती थी कि उस दिन बस ठन ठन गोपाल। छेदी की दुकान के भरोसे दिन कटता था। इसलिए मैने सोची कि इसको मिल में तो नौकरी दिलाने से रहा, क्यों न इसे अपने घर ले चलें, वह खाना बनाएगा तो रोज रोज का हम लोगों का आपस का झगडे का टंटा ही खत्म हो जाएगा। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">मैने अपने भोजन भटटों को बुलाकर इस बारे में राय मश्िवरा किया। सबने मेरे विचार को मान लिया। सबके चेहरे खिल गए। रोज रोज के खाना बनाने और बर्मन धोने के झंझट से मुक्ति जो मिल रही थी। सामने छेदी की दुकान पर चाय पी रहे उस आदमी को मैने हांक लगाया तो वह दौडकर मेरे पास आया। जी साहब, हमारी नौकरी की बात पक्की हो गई। मैने पहले उसे अपने ओहदे और औकात के बारे में बताया। उसके चेहरे के भाव को देखकर समझा जा सकता था कि मेरे छोटे ओहदे की कसक मुझसे कहीं अधिक उसे थी। फिर भी उसे यह समझाने में कामयाब हो गया कि मेरे चाहने से उसको मिल में नौकरी नहीं मिलने वाली। </span></strong><br />
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<strong><span style="color: blue;">मैं बोली, फिर भी तुम्हे निराश होने की जरूरत नहीं है। एक उपाय है हमारे पास। ऐसा करो तुम हम चार लोगों के साथ साथ अपने लिए भी खाना बनाना, हम भी खाएंगे तुम भी खाना। जब हम लोगों को पगार मिलेगा तो उसमें से तुमको भी दे देगी। भागते भूत की लंगोटी भली। उसने झट से हमारी बात मान ली। अब हम लोगों का ठाट बढ गया। हर्रे लगे न फिटकिरी, रंग चोखा होई जाए। वह लगी खाना बनाने और हम लोग लगी खाने। अब किसी दिन ठन ठन गोपाल भी नहीं होता था।</span></strong><br />
<strong><span style="color: blue;">एक दिन क्या हुआ कि वह मकुनी (सत्तू का पराठा) बना रही थी। वह बनाते जा रही थी, हम लोग खाते जा रही थी। पेट तो भर गया था, लेकिन मन नहीं भर रहा था। हमने कहा अब बस एक आखिरी मकुनी दे दो। उसने मुझे जो मकुनी दिया उसके बीच में चेपी (पैबंद)लगा हुआ था। शायद सत्तू की अधिकता के कारण वह फट गया होगा। हमको अंदेशा हुई। हमने पूछी इ बताओ तुम्हारी जाति क्या है। वह डर गई। डर के मारे कांपने लगी। रोते हुए बोली कि साहब हम मोची हैं। मुझे बहुत जोर से हंसी आई। हमने हंसते हुए कहा कि तुम बाहर जूते में चेपी लगाते थे आज रोटी में भी चेपी लगा दी। मेरे और साथी भी मेरे इस बात पर हंसने लगे। वह आगे भी बहुत दिनों तक हम लोगों को खाना बनाकर खिलाता रहा। कभी हम लोगों को लगा ही नहीं कि वह दूसरे गांव घर का आदमी है।</span></strong><br />
<strong><span style="color: blue;">सीताराम चाचा अपनी कहानी को यहीं विराम देते हुए अपने चकोरों से यह जानना चाह रहे थे कि कुछ तुम लोगों के भेजे में घुसा कि नहीं। किसी ने हां में सिर हिलाया तो किसी ने ना में। अरे नामुरादों बात हम कर रहे हैं उस मराठी मानुस राज ठाकरे की, जिसे न तो अपने संविधान में भरोसा है और न अपनी संस्कृति पर। हमारा संविधान अखंड भारत की बात करता है। हमारी संस्कृति ही विविधता में एकता की है। अगर उस दिन मकुनी में चेपी नहीं लगाता तो हम आज तक नहीं जान पाते कि वह किस जाति विरादरी का था। हमारे लिए तो बस यही काफी था कि वह गांव से आया था और उसे नौकरी की दरकार थी। जब अपने और बच्चों के पेट में आग धधकती है तभी कोई बंबई दिल्ली जाता है। इस आसरे के साथ कि बंबई और दिल्ली उसके ही हैं और वहां के लोग भी हमारे ही तो हैं।</span></strong>manoranjansinghhttp://www.blogger.com/profile/16077292512135336468noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8764736367935752273.post-10729145211445663022010-01-21T04:19:00.000-08:002010-02-25T05:11:35.719-08:00सीताराम चाचा और चार चकोरे<span style="color: #3333ff;"><strong>हमारे गांव में सीताराम चाचा हैं। वो अकेले मेरे ही चाचा नहीं, बल्कि पूरे गांव के निर्विवाद चाचा हैं। जिनके वो रिश्ते में दादा, भाई यहां तक कि मामा, नाना भी लगते हैं उनके भी मुंहबोले चाचा ही हैं। इस मसले पर हमारे गांव में पूरी तरह से अनजाने ही समान आचार संहिता लागू है। खैर, सीताराम चाचा जब अपने रव में होते हैं तो पूरखों के गढे मुहावरों से अपनी बात शुरू करते हैं और इन मुहावरों की छौंक बीच बीच में भी देते रहते हैं। खास बात तो यह है कि वो अपने समाजवादी सोंच के मुताबिक बोलते भी हैं। उनके जज्बात जब प्रकट रूप लेते हैं, तो उसमें स्त्रीलिंग पुलिंग का भेद नहीं होता। उनकी वाणी में भोजपुरी, हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी समग्र समाजवाद का अहसास कराते हैं। कहने का गरज यह कि चाचा रहन सहन, पहनावा, खान पान और स्वभावगत समाजवाद के प्रतीक हैं।</strong></span><br />
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<span style="color: #3333ff;"><strong>जबसे जाडा बढा है सीताराम चाचा कउडा (अलाव) के पास बैठकर अखबार वाले का इंतजार करते हैं। बाइस हजार की आबादी वाले हमारे गांव में सीताराम चाचा कुछ चुनिंदा लोगों में से हैं जो अखबार मंगाते हैं। मुंछो पर ताव देकर जिस तरह से हरकारे से अखबार हाथ में थामते हैं, उससे रोज ही जाहिर हो जाता है कि अखबार मंगाना सबके बूते की बात नहीं है। </strong></span><br />
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<span style="color: #3333ff;"><strong>सुबह अखबार पढने के लिए और शाम को उनके रोज गढे जाने वाले चोंचले सुनने के लिए उनके दरवाजे मजमा लग जाता हैं। नारद नाई, बलेसर धोबी, जुम्मन मियां और बीजी पांडे (ये बीजी शरद जोशी के लापतागंज के करेक्टर से थोडा अलग है , क्योंकि ये महोदय कभी बिजी होते ही नहीं), तो बिना नागा दोनों जून के दरबारी हैं। दरबारी इसलिए कि उनका सुबह शाम आने का मकसद सीतारामी सुनने या अखबार बांचने का नहीं होता, बल्कि चच्ची के हाथ की बनी चाय का सुडुक्का मारने और चाचा की चुनौटी (खैनी चूना रखने का पात्र) पर हाथ साफ करने का होता है। इस चाय और खैनी पुराण की बहुत सारी बातें हैं, जिसपर बीच बीच में बातें होती रहेंगी। वादा यह भी है कि सीताराम चाचा के नारद, बलेसर, जुम्मन और बीजी नामक चार चकोरों के बारे में भी तफ़सील से बातें होंगी। </strong></span><br />
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<span style="color: #3333ff;"><strong>आज सुबह का अखबार चाचा के हाथ में आया, तो उनका मिजाज उखड गया। उनके चारो चकोरों ने चाचा के मिजाज को देख सोच लिया कि अखबार वालों ने आज कुछ गुस्ताखी जरूर कर दी है। इन अखबार वालों का क्या, जो मन में आया छाप दिया। चाचा तो हरकारे को महीने में कौन कहे पंद्रह दिन में ही पेमेंट कर देते हैं, फिर भी इन नामुरादों को चाचा का तनिक भी खयाल नहीं है। </strong></span><br />
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<span style="color: #3333ff;"><strong>कउडा को घेर कर बैठे इन चकोरों की चिन्ता बढने लगी। बार बार उनकी नजर चाचा के चौखट की ओर जा रहा था। रोज की तरह चच्ची चाय की केतली लिये नमुदार भी नहीं हो रही थीं। चकोरों ने मन ही मन अखबार वालों को और गाली देना शुरू कर दिया। तभी चच्ची की चाय की चासनी वाली आवाज फिजां में फैल गई। ए नारद ये चाय ले जाओ। नारद तपाक से उठे और कब चच्ची के हाथ की केतली और कप लेकर कउडा के पास पहुंच गए किसी ने देखा तो किसी ने नहीं देखा। </strong></span><br />
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<span style="color: #3333ff;"><strong>लबे बाम चाय का कप जब चाचा की ओर बढाया तो उन्होंने चाय में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। बोले तुम लोग पीओ हम बाद में पी लेगी। बीजी से रहा नहीं गया। उसने कहा चाचा आज से अखबार मंगाना बंद कीजिए। जो हाथ में पकडे हैं उसे कउडा में डाल दीजिए। जब अखबार वालों को आपकी कोई फिकर नहीं है तो उनका अखबार क्यों लेते हैं। </strong></span><br />
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<span style="color: #3333ff;"><strong>चाचा बोले, नहीं रे इसमें अखबार वालों का क्या दोस। हमारे बडे बूढे कहते थे कि कोस कोस पर बानी बदले चार कोस पर पानी। फिर भी हम भारत के लोग एक हैं। लेकिन इ जवन राज ठाकरे है न, उसको यह बात क्यों समझ में नहीं आता।</strong></span><br />
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