शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

गुडडू का स्‍वयंबर


गुडडू की शादी को लेकर बीजी पंडित का चिन्तित होना लाजिमी है। दोनों भाइयों सीताराम चाचा और जंग बहादुर भाई का अकेला वारिस है गुडडू। (याद दिला दें सीताराम चाचा रिश्‍ते में बीजी के भाई लगते हैं, लेकिन जगत चाचा की उपाधि से सुशोभित सीताराम चाचा को पंडित भी समूचे गांव वालों की तरह चाचा ही कहते हैं)  कुल के इस इकलौते चिराग गुडडू की अगर शादी नहीं हुई तो इस वंश का दीया ही बुझ जाएगा।

जंग भाई और भौजी से तीन बेटियों के बाद तो आंगन में गुडडू की किलकारी गूंजी थी। बहुत दुलार में पला है गुडडू। जब वह हाईस्‍कूल में था तब उसका पढाई से मन उचट गया। जब वह दो दिन स्‍कूल नहीं गया तो जंग भाई ने पूछा था कि तुम स्‍कूल क्‍यों नहीं जा रहे हो। गुडडू ने पढाई से मन उचटने की बात बताई तो एलान ए जंग हुआ कि चलो नहीं मन है तो पढाई लिखाई छोडो। तुम्‍हे किस बात की कमी है। कुछ भी नहीं करोगे तो भी राजकुमारों की तरह रहोगे। चाचा ने गुडडू की पढाई छोडने का विरोध किया तो जंग भाई ने यह कहकर चाचा को समझा लिया था कि भईया, हम दोनों के बीच में एक ही तो संतान है। नहीं पढेगा तो क्‍या हो जाएगा। जीवन भर दूध भात खाएगा हमारा गुडडू। नतीजा यह हुआ कि गुडडू कक्षा 8 पास और 9 फेल है और ताज्‍जुब तो यह है कि गुडडू को भी इस बात का कोई मलाल नहीं है।


दरभंगा से जब पहली बार तिलकहरू आए थे तो उनकी आव भगत में कोई कमी नहीं की गई थी। हलुआ, गुलाबजामुन और पकौडी चाय से नाश्‍ता कराने के बाद खाने में भौजी ने खास कचौडी और मालपुआ बनाईं थीं। मेहमानों को भोजन परोसते समय बब्बन भांट की जोरू ने मंगल गीत गाए गए थे। हमारे यहां तिलकहरुओं को खिलाते समय गाली गाने का भी रिवाज है। भौजी ने बब्‍बन की जोरू को अपने होने वाले समधी के लिए फरमाइशी गाली गवाईं थीं। इसके एवज में होने वाले समधी ने बब्‍बन बो को 51 रुपये का निछावर भी दिया था।

अब तक तो सबकुछ ठीक चल रहा था। लेकिन भोजनोपरांत लडकी के पिता ने गुडडू के स्‍कूल का नाम क्‍या पूछ लिया, सारा खेल ही चौपट हो गया। उन्‍होंने गुडडू को अपने पास बुलाकर पूछा कि बेटा आपका स्‍कूल का भी नाम गुडडू ही है या और कुछ। गुडडू ने कहा, नहीं मेरा स्‍कूल टा नाम टमलाटर है। पढी लिखी और सुघर बेटी के लिए तोतला दामाद कौन पिता पसंद करेगा। दरभंगा वाले यह कहकर विदा हुए कि जल्‍दी ही पंडित जी से साइत (मुहूर्त)  निकलवाकर खबर करेंगे, लेकिन 11 साल हो गए आज तक कोई खबर लेकर नहीं आया। तब से लेकर दो साल पहले तक तिलकहरू आते जाते रहे, लेकिन गुडडू को अपनी बेटी देने को कोई तैयार नहीं हुआ।

अब बीजी ने प्रतिज्ञा कर ली है कि कुछ भी हो वह चाचा को किसी तरह मनाकर गुडडू का पाणिग्रहण संस्‍कार इस साल जरूर कराएगा। वह इस कुल के चिराग को हर कीमत पर जलाये रखेगा, भले ही आंधी पानी आए इसे बुझने नहीं देगा। एक दिन उसे चाचा अकेले मिल गए।  बीजी इस मौके को गंवाना नहीं चाहता था। इसलिए बिना किसी भूमिका के चाचा से पूछ ही लिया। बताइए चाचा गुडडू की शादी कब कर रहे हैं। बिना किसी प्रसंग के बीजी के इस सवाल के बारे में चाचा ने तो कल्‍पना भी नहीं की थी। पंडित फिर गुडडू की शादी को लेकर बैठ गई। नहीं चाचा इस बार हमको माकूल जवाब चाहिए, क्‍योंकि यह एक खानदान के खत्‍म हो जाने जैसे गंभीर मसले से जुडा हुआ सवाल है। क्‍या बात करती हो पंडित, लडका लडकी में कोई भेद नहीं है। जंग बहादुर की तीन तीन लडकियां हैं। उनके बच्‍चे हैं। क्‍या वो सब इस खानदान के चश्‍मो चिराग नहीं हैं। देखो पंडित हम जंग बहादुर के बच्‍चों के ताउ हैं। हम उनके मुखिया हैं, पालक हैं सामंत नहीं। परंपराओं को तब तक ही ढोना चाहिए जब तक वह लोगों के लिए छाते का काम करे। किसी भी क्रूर और अधिनायकवादी परंपरा को नकार देना चाहिए। हमारे लिए चारो बच्‍चे बराबर हैं। हमारे लिए गुडडू और उसकी तीन बहनों में कोई अंतर नहीं है। तुमको पता नहीं है क्‍या कि नेहरू परिवार किससे चल रही है। अरे घोघाबसंत इंदिरा से। जहां तक गुडडू की शादी की बात है तो उसकी शादी होनी चाहिए। हम भी चाहती है कि घर में एक बहू आए। लेकिन क्‍या करें, कोई लडकी वाला तैयार ही नहीं हो रही है। सीता और द्रौपदी की तरह लडकी होती तो उसका स्‍वयंवर भी कर लेती। आसपास के दस बीस गांवों में न्‍योता पेठाती, लेकिन इसका हम क्‍या करें, स्‍वयंवर भी तो नहीं कर सकते। 

बस बीजी को तो इसी समय का इंतजार था। चाचा नारद बता रहा था कि सिसवन (बिहार का एक गांव) में लुकराधी सिंह की एक बेटी है। वह एक आंख से भैंगी है। गुडडू की तरह उसकी भी कई शादियां तय होने के बाद कट गई। वह 27 साल की हो गई है। अपने गुडडू से चार साल छोटी है। जोडी एकदम फीट बनेगी। आप कहते तो नारद से लुकराधी बाबू के यहां संदेशा पेठवा देता। चाचा ने बहुत जोर से ठहाका लगाया ओर बोले लुकराधी की बेटी है तो भैंगी ही होगी। (भोजपुरी का शब्‍द है लुकराधी। इसका मतलब होता है खुराफाती)  खैर लुकराधी बाबू को भी यह रिश्‍ता पसंद आया। 

शादी का दिन तय हो। जंग भाई के पांव जमीन पर पड ही नहीं रहे थे। बारात का न्‍योता आसपास के 20 गांवों में भेजा गया। अंग्रेजी बाजा के अलावा गोडउ (हुरका), पखावज,  डफरा और ढोल ताशे वालों को भी बुलाया गया था। घुडदौड के लिए घोडा, हाथी और उंट का भी इंतजाम था। रात के लिए गनेश भांड की नौटंकी पार्टी को पूरे 16 हजार देकर लाया गया था। चाचा कोई कसर नहीं छोडना चाहते थे। लेकिन लोगों की उत्‍सुकता इस शानदार बारात से अधिक दुल्‍हा और दुल्‍हन को लेकर थी। नारद नाई के लिए चाचा ने खास पीले रंग की धोती और सिल्‍क का कुर्ता सिलवाया था। जब मडवे में वैवाहिक संस्‍कार चल रहा था, तब बधू पक्ष का नाई नारद को बातों का चिकोटी काट रहा था। जब वर वधू ने सात फेरे पूरे किये तो लडकी पक्ष के नाई ने नारद की ओर मुखातिब होकर कहा, ठाकुर जी भैंगी ने वर जीत लिया, उसके लगातार शब्‍दवाणों से परेशान नारद ने कहा, ठीक कहा भइया, लेकिन वर बोले तो जानूं।
          

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