शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

वाचमैन चाचा

सीताराम चाचा सहारनपुर पेपर मिल के दरवान थे। रिटायर होने के बाद पिछले पंद्रह एक सालों से गांव में रह रहे हैं। सहारनपुर मिल की कालोनी में ही उनका रहवास था। चच्‍ची गांव में रहती थीं। तीज त्‍योहार होली दिवाली में ही चाचा का गांव आना होता था। आज सुबह की चाय खत्‍म होते ही सीताराम चाचा अपने चारो चकोरों की ओर मुखातिब हुए। मराठी मानुस से आहत चाचा अपनी वेदना को कब तक दबाए बैठते। उन्‍होंने अपनी एक आपबीती सुनाने बैठ गए। बातचीत की भाषा समाजवादी है। आप भी सुनिये ...
बात सतहत्‍तर के इमरजेंसी के दौरान की है। एक दिन क्‍या हुआ कि मैं मिल के गेट पर पहरा दे रही थी। एक आदमी बार बार गेट तक आ रही थी और लौट जा रही थी। मुझे लगा कि अपने ही किसी स्‍टाफ का कोई रिश्‍तेदार या भाई होगा। इसलिए उसको बुलाकर पूछी, ऐ भाई किससे मिलना है। वह बोला, साहब हम गांव से आए हैं और मुझे नौकरी की बहुत दरकार है। घर में मेहरी और चार छोटे छोटे छौने ‍हैं। बाढ में खेती तबाह हो गई है। आपकी किरपा हो जाए तो हमारा भला हो जाए। मैं और मेरे बच्‍चे आपको आशिर्वाद देंगे।

उस आदमी की इस उम्‍मीद से मेरा दिमाग चकरा गया। भला एक दरवान की क्‍या औकात कि किसी को मिल में नौकरी दिला दे। एक बार मन हुआ कि उसको सही बात बताकर यहां से चलता कर दूं, लेकिन वह गांव से आया हुआ था और पहली बार मुझे किसी ने साहब कहा था। इसलिए हमने उसे सामने वाली छेदी की चाय की दुकान पर बैठने को बोल दिया और सोचने लगा कि इसका क्‍या इंतजाम करूं।
वैसे तो मिल में कई दरवान थे, लेकिन हम चार लोग ऐसे थे जो अकेले ही रहते थे। खुद ही खाना बनाते थे और बर्तन भी मांजते थे। खाना बनाने और बर्तन धोने को लेकर हम लोगों में अक्‍सर लडाई हो जाता था। कई बार बात इतनी बढ जाती थी कि उस दिन बस ठन ठन गोपाल। छेदी की दुकान के भरोसे दिन कटता था। इसलिए मैने सोची कि इसको मिल में तो नौकरी दिलाने से रहा, क्‍यों न इसे अपने घर ले चलें, वह खाना बनाएगा तो रोज रोज का हम लोगों का आपस का झगडे का टंटा ही खत्‍म हो जाएगा।

मैने अपने भोजन भटटों को बुलाकर इस बारे में राय मश्‍िवरा किया। सबने मेरे विचार को मान लिया। सबके चेहरे खिल गए। रोज रोज के खाना बनाने और बर्मन धोने के झंझट से मुक्ति जो मिल रही थी। सामने छेदी की दुकान पर चाय पी रहे उस आदमी को मैने हांक लगाया तो वह दौडकर मेरे पास आया। जी साहब, हमारी नौकरी की बात पक्‍की हो गई। मैने पहले उसे अपने ओहदे और औकात के बारे में बताया। उसके चेहरे के भाव को देखकर समझा जा सकता था कि मेरे छोटे ओहदे की कसक मुझसे कहीं अधिक उसे थी। फिर भी उसे यह समझाने में कामयाब हो गया कि मेरे चाहने से उसको मिल में नौकरी नहीं मिलने वाली।

मैं बोली, फिर भी तुम्‍हे निराश होने की जरूरत नहीं है। एक उपाय है हमारे पास। ऐसा करो तुम हम चार लोगों के साथ साथ अपने लिए भी खाना बनाना, हम भी खाएंगे तुम भी खाना। जब हम लोगों को पगार मिलेगा तो उसमें से तुमको भी दे देगी। भागते भूत की लंगोटी भली। उसने झट से हमारी बात मान ली। अब हम लोगों का ठाट बढ गया। हर्रे लगे न फिटकिरी, रंग चोखा होई जाए। वह लगी खाना बनाने और हम लोग लगी खाने। अब किसी दिन ठन ठन गोपाल भी नहीं होता था।
एक दिन क्‍या हुआ कि वह मकुनी (सत्‍तू का पराठा) बना रही थी। वह बनाते जा रही थी, हम लोग खाते जा रही थी। पेट तो भर गया था, लेकिन मन नहीं भर रहा था। हमने कहा अब बस एक आखिरी मकुनी दे दो। उसने मुझे जो मकुनी दिया उसके बीच में चेपी (पैबंद)लगा हुआ था। शायद सत्‍तू की अधिकता के कारण वह फट गया होगा। हमको अंदेशा हुई। हमने पूछी इ बताओ तुम्‍हारी जाति क्‍या है। वह डर गई। डर के मारे कांपने लगी। रोते हुए बोली कि साहब हम मोची हैं। मुझे बहुत जोर से हंसी आई। हमने हंसते हुए कहा कि तुम बाहर जूते में चेपी लगाते थे आज रोटी में भी चेपी लगा दी। मेरे और साथी भी मेरे इस बात पर हंसने लगे। वह आगे भी बहुत दिनों तक हम लोगों को खाना बनाकर खिलाता रहा। कभी हम लोगों को लगा ही नहीं कि वह दूसरे गांव घर का आदमी है।
सीताराम चाचा अपनी कहानी को यहीं विराम देते हुए अपने चकोरों से यह जानना चाह रहे थे कि कुछ तुम लोगों के भेजे में घुसा कि नहीं। किसी ने हां में सिर हिलाया तो किसी ने ना में। अरे नामुरादों बात हम कर रहे हैं उस मराठी मानुस राज ठाकरे की, जिसे न तो अपने संविधान में भरोसा है और न अपनी संस्‍कृति पर। हमारा संविधान अखंड भारत की बात करता है। हमारी संस्‍कृति ही विविधता में एकता की है। अगर उस दिन मकुनी में चेपी नहीं लगाता तो हम आज तक नहीं जान पाते कि वह किस जाति विरादरी का था। हमारे लिए तो बस यही काफी था कि वह गांव से आया था और उसे नौकरी की दरकार थी। जब अपने और बच्‍चों के पेट में आग धधकती है तभी कोई बंबई दिल्‍ली जाता है। इस आसरे के साथ कि बंबई और दिल्‍ली उसके ही हैं और वहां के लोग भी हमारे ही तो हैं।

2 टिप्‍पणियां:

  1. jo baat aapne likhi hai, wo ekdam sidhi hai. lekin use samajhna raj thakre jaise logo ke bas ki baat nahi. are wo jab apne bhai aur chacha ke nahi hue to bihari, ya UP ke logo ko kaise apnayenge.

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  2. Sangsari (pelting with stone) is the suitable treatment for Rajthakre. Stire therapy will not work to him.

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