शनिवार, 20 मार्च 2010

छोटकी इया

जब उधर संसद के बाहर और भीतर महिला आरक्षण बिल पर शोर मच रहा था तो इधर सीताराम चाचा के चौपाल में भी बहुत गर्मागर्म बहस चल रही थी। बिल के पक्ष और प्रतिपक्ष की अपनी अपनी दलीलें थीं। लेकिन मुझे अपनी छोटकी इया की याद बार बार आने लगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि जमाना तेजी से बदल रहा है। जमाने के साथ ही महिलाओं के हालात भी बदल रहे हैं। फिर भी मैं दावे के साथ कहता हूं कि छोटकी इया आज भी गांवों में जिन्‍दा हैं। कोई विश्‍लेषण नहीं है बस महिला आरक्षण बिल के संदर्भ में ही छोटकी इया की यादें प्रस्‍तुत है ...  

तीस पैंतीस साल पहले की बात है। सीताराम चाचा के चाचा थे बाबू इंद्रदेव सिंह। हम लोगों के बाबा। बाबा मतलब दादा जी। अदभुत व्‍यक्तित्‍व के मालिक। मुंह में एक भी दांत नहीं, लेकिन आवाज इतनी बुलंद कि पूछिये मत। झक सफेद फरसा जैसी मुंछें उनके व्‍यक्तित्‍व में चार चांद लगाती थीं। एक पैर से कमजोर थे। बडे कास्‍तकार थे। उनकी खेती बारी दूर दूर तक फैली थी इसलिए घोडी की सवारी करते थे।  

जमींदारों जैसी सोच। मजाल क्‍या कि कोई बेगार उनके दरवाजे आए और बिना कोई काम किये चला जाए। डोर में बंधा एक घडा था। वह हमेशा पानी से लबालब भरा रहता था। अगर बेगार के लिए कोई काम नहीं होता था, तो कहते घइली (घडे) का पानी गिरा दो और उसमें कुएं से ताजा पानी भरकर रख दो। काम करने वाले को मजदूरी में बाबा खैनी या बीडी देते थे। एक बार मैने पूछ लिया बाबा आप ऐसा क्‍यों करते हैं, तो उन्‍होंने बताया कि नतिरम (पोते को प्‍यार से नतिरम कहते थे) मैं ऐसा इसलिए करता हूं कि वह गांव में जाकर लोगों से यह न कहे कि बाबू के घर कोई काम ही नहीं है।

फिर भी बाबा का मन बहुत कोमल था। उनकी जानकारी में हमारे टोले में कोई भूखा नहीं सो सकता था। शाम को बुद्धन या धर्मदेव (दोनों बाबा के नौकर) की यह जिम्‍मेदारी थी कि दोनों टोले में जाकर देखें कि किसके आंगन से धूआं नहीं उठ रहा है। इसका मतलब था कि उसके घर खाना नहीं बन रहा है। खाना बनता तो जरूर धुआं उठता। बुद्धन और धर्मदेव की रिपोर्ट के बाद उसके घर के मालिक को बुलाया जाता था और उसके घर के सदस्‍यों की संख्‍या के हिसाब से चावल, आटा, आलू दिया जाता था, ताकि वह परिवार भूखा न सो सके।

बाबा के इस बहुआयामी व्‍यक्तित्‍व के कारण ही गांव वाले उनको कई नामों से पूकारते थे। कोई फाक साहब कहता था तो कोई गांधी बाबा। हालांकि कि कालांतर में गांधी के अपभ्रंस गान्‍ही बाबा के नाम से वो ज्‍यादा मशहूर थे, लेकिन हम यहां उनको गांधी बाबा ही कहेंगे।

गांधी बाबा को अपनी लोकप्रियता बहुत पसंद थी। इसको आगे बढाने के लिए वह हर जतन करने को तैयार बैठे रहते थे। अडोस पडोस के आठ दस गांवों के लोग तो उनको बहुत ठीक से जानते थे। उनके दरवाजे से गुजरने वाले हर दस आदमी में से आठ सलाम बजाते थे। बाकी दो वो लोग होते थे, जो अडोस पडोस के गांवों के रिश्‍तेदार हुआ करते थे।

बाबा को ऐसे दो लोगों की बेरूखी भी नागवार गुजरती थी। ऐसे लोगों को वो हांक लगाकर बुलाते थे। सबसे पहले उनका परिचय पूछते थे। फिर जल गुड और बीडी खैनी का आमंत्रण देते थे। हर आदमी इस सत्‍कारचक्र में उलझ ही जाता था। उनका मकसद होता था एक बार सत्‍कार का मौका लेना। जिस भी मेहमान का एक बार सत्‍कार हो गया वह जाते समय जरूर सलाम बजाता था। अगर भविष्‍य में उसे इस राह से गुजरना हुआ तो हर बार वह बाबा के सत्‍कार का ऋण उतारकर ही जाता था। यानि सलाम बजाना नहीं भूलता था।

बाबा की दो शादियां हुईं थी। बडकी इया (बडी दादी) और छोटकी इया (छोटी दादी) दोनों जीवित थीं। बडकी इया झक गोरी और छोटी थीं तो छोटकी इया सांवली और लंबी। दोनों इया में एक दूसरे के प्रति स्‍नेह और आदर भाव देखकर लगता था दोनों सहोदर बहनें हैं। सौतन के पारंपरिक और गढे परिभाषा दोनों इया को छू तक नहीं पाए थे। गांधी बाबा की दूसरी शादी इसलिए हुई, क्‍योंकि बडकी इया से काई संतान नहीं थी। छोटकी इया से पांच बेटियां हुईं।

बाबा का दोनों इया से व्‍यवहार अलग अलग तरह का था। वो बडकी इया का बहुत सम्‍मान करते थे। हर छोटे बडे फैसले में उनकी राय लेते थे। लेकिन छोटकी इया को बात बात पर डांटते रहते थे। मुझे याद है कई बार तो इतना नाराज हो जाते थे कि खरहर (द्वार बहारने वाला झाडू) से मारते थे। जब वह खरहर लेकर इया पर हमलावर होते थे तो घर में सन्‍नाटा पसर जाता था। केवल गाली व उनके डांटने की तेज तेज आवाजें आती  और बीच बीच में खरहर पटकने पर झम झम का शोर। लगता ही नहीं था कि उस कमरे में और कोई है। बडकी इया के हस्‍तक्षेप के तुरंत बाद बाबा अपना आक्रमण रोक देते थे और बिना कुछ बोले द्वार पर चले जाते थे।  

यह सब कुछ इतना जल्‍दी में होता था कि किसी को कभी समझ में नहीं आता कि गांधी बाबा नाराज क्‍यों थे। जब बाबा द्वार पर चले जाते थे तो छोटकी इया रोना शुरू करती थीं। घर की अन्‍य औरते उनको घेर कर चुप कराने लगती थीं। उसी में कोई कहता बाबा इया को मार थोडे ही रहे थे, वो तो कोठिला (अनाज रखने के लिए मिटटी का एक बडा पात्र ) पर खरहर पटक रहे थे। इया तो कोठिला के पीछे थीं। इस पर छोटकी इया हंसने लगती थीं और थोडे ही समय पहले का वह तनावपूर्ण माहौल द्वाण में सरस हो जाता था।

छोटकी इया के रोने के पीछे का मनोविज्ञान शायद यह होता था कि वैसे तो सार्वजनिक तौर पर बाबा की नाराजगी का विरोध तो नहीं कर सकती थीं, इसलिए रोकर अपना विरोध प्रकट करती थीं। ऐसा हर हफ़ते दस दिन में होता था और छोटकी इया हर बार ऐसा ही करती थीं।

गांधी बाबा के जीते जी घर के किसी भी बहू को चौखट के बाहर कदम रखने की इजाजत नहीं थी। कोई नई बहू हो या बडकी इया केवल अपने नइहर (मायके) जाते वक्‍त ही चौखट के बाहर पांव रखती थी। वह भी डोली या बैलगडी में। डोली और बैलगाडी में पर्दा बंधा होता था। हां साल में एक बार जिउतिया के व्रत में नदी नहाने के लिए खिडकी के रास्‍ते जाने की इजाजत होती थी। 

एक बार छोटकी इया घर की बुजुर्ग महिलाओं के साथ नदी नहाने के लिए गईं। सभी महिलाएं घूंघट में ही जाती थीं। नदी से नहाकर लौटते समय छोटकी इया पीछे छूट गईं। घूंघट से उनको आगे चल रही घर की औरतें दिखाई नहीं दीं और वो रास्‍ता भटक गईं। जब वो तुरहाटोली के नजदीक पहुंचीं तो उनको कालीचरन ने पहचान लिया। उनके पास जाकर पैलगी करने के बाद कालीचरन ने पूछा मलकिन कहां जा रही हैं। छोटकी इया ने भी कालीचरन को पहचान लिया। कालीचरन खेतीबारी में हाथ बंटाता था। उन्‍होंने घूंघट की ओट से ही धीरे से कहा घर जा रही हूं। कालीचरन ने कहा घर तो आप पीछे छोड आई हैं, चलिये आपको छोड आता हूं। छोटकी इया कालीचरन के साथ घर पहुंचीं। इधर घर में नदी से लौटकर आईं महिलाएं छोटकी इया को लेकर खुसुर फुसुर कर रहीं थीं। किसी में यह हिम्‍मत नहीं थी कि इसकी सूचना बाबा को दे दें। जब कालीचरन खिडकी के रास्‍ते छोटकी इया को लेकर आया तब जाकर सबके जान में जान आई।

            

3 टिप्‍पणियां:

  1. sir apka blog padhkar mujhe bhi apne gaon ki yaad aati hai. Chunki maine bhi apni ab tak ki umra ka ek bada hissa gaon me hi bitaya hai isliye apke blog me likhe shabdon ki mahak se gaon ke abhasi chitra meri aankho ke samne khinch jaata hai. Jahan tak baat Purane jamane ke usulon ki hai to iss bare me batao to ab kisi ko yakeen hi nahi hota.

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  2. shaher pe shaher badalta jaa raha hoon... kambakht mit ti nahi ye maati ki khushboo...
    Best wishes
    Regards
    Ajayendra Rajan

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  3. Gaon ki yad aapne taja kar di. Bhojpuri patti ke har gaon me aj se 20 sal pahle kuchh aisa hi hota tha.

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