बुधवार, 24 मार्च 2010

चिठिया हो तो ...एक


सोस्‍ती श्री सर्व उपमा जोग लिखी गोवर्धन के तरफ से बाबा, इया, माई, बाबुजी, भईया, भौजी को सलाम पहुंचे जी। डाक्‍टर काका और डाक्‍टराइन काकी को भी सलाम कहना जी। चिटठी बांचने वाले को भी सलाम जी। फुलेसरी की माई  (गोबर्धन की पत्‍नी) को भी ढेर सारा प्‍यार पहुंचे।


यह एक चिटठी का मजमून है, जो एक पति अपनी पत्‍नी को लिखा है। चिटठी लिखने के सबके अपने अपने तरीके थे। जोरु हो, मां, पिता हों बडे भाई, छोटे भाई हों या दोस्‍त, चिटठी के मजमून में संबोधन और लिखने के तरीके में थोडा सा ही हेरफेर होता था,  लेकिन सबका मर्म कमोबेश एक जैसा ही होता था। लगभग हर दूसरी चिटठी में लिखा होता था थोडा लिखना ज्‍यादा समझना। बहुत व्‍यापक होता था इन चार शब्‍दों का अर्थ। मुझे याद है उन चिटिठयों में अपनी बातें बाद में, पहले दूसरों की बातें होती थीं। भोजपुरी संगीत साहित्‍य में चिटठी को लेकर कई गाने लिखे और गाए गए। शारदा सिन्‍हा का रोई रोई पतिया लिखावे रजमतिया अगर आपने सुना होगा तो इन चिटिठयों की भावना को जरूर समझ रहे होंगे। किस रिश्‍ते को चिटठी लिखी गई है यही उस चिटठी की संवेदनशीलता का आधार होता था। पत्‍नी और प्रेयसी की चिटिठयों में दोहा, शेर ओ शायरी की छौंक जरूर होती थी। आज हम उसी रिश्‍तों में से एक पत्‍नी को लिखी जाने वाली चिटठी पर बात करते हैं।  


गांव में मेरे बडका बाबुजी पोस्‍टमास्‍टर और छोटका बाबा डाकबाबू थे। कहने का गरज यह कि हमारे घर में ही डाकखाना था। गांव बहुत बडा था। बहुत लोग नौकरी करने के लिए बाहर रहते थे। इसलिए खूब चिटिठयां आती थीं। जब डाक खुलता था तो बडका बाबुजी उन चिटिठयों पर मुहर मारने के लिए मुझे बुलाते थे। जब मैं डाकखाने वाले कमरे के दरवाजे पर पहुंचता था, तो बडका बाबुजी नाक पर नीचे तक सरक आए गांधी चश्‍में से झांकते हुए कहते चिटिठयां आ गईं हैं। मेरा काम होता था उन चिटिठयों पर मुहर मारकर छोटका बाबा के यहां पहुंचाना। भले ही छोटका बाबा डाकबाबू थे, लेकिन रिश्‍ते में थे बडका बाबुजी चाचा। वो कभी डाकखाने में नहीं आते थे। यहां सरकारी पदों पर घर का रिश्‍ता ज्‍यादा प्रभावी दिखता था। इसलिए डाक या मनिआर्डर मुझे उन तक पहुंचाना पडता था।


रोज आने वाले डाक में चिटिठयां इतनी होती थीं कि मुझे मुहर मारने में पंद्रह से बीस मिनट का समय लगता था। उन चिटिठयों में बैरंग (बिना डाक टिकट वाले खत) ढेर सारी होती थीं। मुझे बहुत हैरत होती थी कि ये लोग बैरंग चिटिठयां क्‍यों मंगाते हैं। तब लिफाफा पच्‍चीस पैसे में मिलता था और बैरंग के लिए चिटठी प्राप्‍तकर्ता को पचास पैसे डाकबाबू को देने पडते थे।


मैने अपनी उत्‍सुकता खत्‍म करने के लिए एक ऐसे ही पावती से पूछ लिया जिसका बेटा उसे बैरंग चिटठी भेजा था। उसका जवाब था कि बैरंग चिटठी के जल्‍दी मिलने की गारंटी होती है, क्‍योंकि डाक विभाग को इससे ज्‍यादा पैसा मिलता है। शायद तब ही हमारी डाक व्‍यवस्‍था दुनिया में सबसे बडी और विश्‍वसनीय डाक व्‍यवस्‍था थी, फिर ऐसे जवाब से मुझे ताज्‍जुब जरूर हुआ था और मेरी उत्‍सुकता कम भी नहीं हुई थी। वैसे हम सब डाक महकमे की लेटलतीफी को ठीक से जानते हैं। आप भी अखबारों में पढे ही होंगे कि द्वितीय विश्‍व यु्द्ध में एक सैनिक का भेजा गया खत उसके मरने के बाद उसके बेटे को मिली।

खैर हम लोग पत्‍नी को भेजी जाने वाली चिटिठयों की बात कर रहे थे। मैं गांव के प्राइमरी स्‍कूल में तीसरी या चौथी में पढ रहा था। तब तक हिन्‍दी फर्राटेदार पढने लगा था। चिटठी पाने के बाद अक्‍सर लोग परदेसी की खैर खबर जानने की जल्‍दी में मुझसे उसे पढवाया करते थे। हिन्‍दी में लिखी चिटिठयों का भोजपुरी में तर्जुमा करके भी बताना पडता था। मैने महसूस किया कि चिटठी पढना भी अपने आप में एक कला है। चिटठी के मजमून की तरह उसको सुनने वाले के चेहरे पर कभी हंसी, कभी विषाद तो कभी भगवान से प्रार्थना में हाथ उठते भी देखना पडता था। इसके लिए बहुत धैर्य और चिटठी सुनने वाले के मन माफिक बनना पडता था। उसके साथ ही हंसने रोने का स्‍वांग भी करना होता था। कभी कभी स्थितियां बहुत गमगीन तो कभी कभी बहुत नाटकीय भी हो जाया करती थीं।    

ऐसा ही एक वाकया मुझे आज भी याद है। मैं पांचवी में पढ रहा था। उस दिन सुबह के सात साढे सात का समय रहा होगा। बाजार टोला का पारस बंबई से अपनी पत्‍नी के लिए चिटठी भेजा था। डाकखाने में चिटठी लेने उसकी मां आ गई। चिटठी खोला तो संवोधन  (मेरी प्राणप्‍यारी)  का मतलब मेरी समझ में नहीं आया। जब प्राणप्‍यारी का मतलब नहीं पता था तो यह बोध होना असंभव था कि अपनी बहू की चिटठी उसकी सास को नहीं सुनना चाहिए। इसलिए अन्‍य खतों की तरह पारस की पत्‍नी की चिटठी भी पढना शुरु किया।

चिटठी लाल स्‍याही से लिखी हुई थी। संबोधन के बाद सबसे पहले एक शेर था ... लिखता हूं खत खून से स्‍याही मत समझना, मरता हूं तेरी याद में जिन्‍दा मत समझना। इधर शेर का आखिरी अशआर खत्‍म हुआ उधर जैसे तूफान खडा हो गया। पारस की मां छाती पीट पीट कर चिल्‍ला चिल्‍ला कर रोने लगी। अभी मैं कुछ समझ पाता द्वार पर इधर उधर खडे और अडोस पडोस के लोग वहां दौडकर आ गये। कोई कुएं पर पानी भर रहा  हाथ में बाल्‍टी डोर लिये चला आया, कोई दतुईन कर रहा था तो वह मुंह में दतुईन चबाते चला आया, कोई जानवरों को चारा मिला रहा था तो हाथ में सानी लगे दौडा चला आया। फागू तो कुदाल लेकर नाली बनाने जा रहा था वह कंधे पर फावडा लिये चला आया। सबको लगा कोई अनहोनी हो गई है। हमने देखा है गांव ऐसे मौकों पर संजीदा हो जाता है।  अचानक पारस की मां के करूणक्रंदन पर मैं सकते में आ गया। जिसको देखो वह मुझसे ही पूछ रहा था क्‍या हुआ। कोई पूछ रहा था पारस को कुछ हो गया है क्‍या, तो कोई बिना कुछ पूछे ही मेरी ओर इस निगाह से देख रहा था कि मैं चिटठी में लिखे उस अशुभ खबर को बताउं, जिसको सुनने के बाद पारस की मां का वह हाल हुआ था।

पारस की मां थी कि अपना क्रंदन जारी रखे हुए थी। मैं अवाक सब देख रहा था। एक चिटठी का क्‍या असर हो सकता है मेरा पहला अनुभव बहुत ही खराब था। अब पारस की मां अपनी बहू को गाली पे गाली बके जा रही थी। इस कलमुंही के लिए हमारे बाबू अपने रकत से चिटठी लिखे हैं। वैसे मेरा बेटा पहले से ही कमजोर था, अब पता नहीं परदेस में इस मुंहझौसी के खातिर कितना खून निकाला होगा। महेंदर भाई मेरे हाथ से पारस की चिटठी जैसे छीनकर ले लिये। उपर की दो पंक्तियां पढते ही पारस की मां को डांटने लगे। इस चिटठी को तुम क्‍यों पढवा रही हो। यह तो पारसा बो के लिए है। उसने चिटठी लाल रंग की स्‍याही से लिखी है खून से नहीं। महेंदर भाई के इतना बोलते ही सबको माजरा समझ में आ गया और सब लोग हंसने लगे।          
      

5 टिप्‍पणियां:

  1. Kafi achha laga. Saani, datuin jaise shabd lupt hote ja rahe hain inhen padhkar achhcha lagta hai.

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  2. गांव का परिवेश आपकी आत्‍मा में बस चुका है। मगर सोचता हूं कि क्‍या अब भी गांव के लोगों में इतनी सादगी बची है। वे कोलगेट पर भरोसा करते हैं या दतुअन को अपनाते हैं। रही बात चिट्ठी की तो नायाब हास्‍यास्‍पद खूनी कलम से उसने अपनी पत्‍नी को पत्र लिखा था। मजा आ गया..........

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