बुधवार, 24 मार्च 2010
चिठिया हो तो ...एक
सोस्ती श्री सर्व उपमा जोग लिखी गोवर्धन के तरफ से बाबा, इया, माई, बाबुजी, भईया, भौजी को सलाम पहुंचे जी। डाक्टर काका और डाक्टराइन काकी को भी सलाम कहना जी। चिटठी बांचने वाले को भी सलाम जी। फुलेसरी की माई (गोबर्धन की पत्नी) को भी ढेर सारा प्यार पहुंचे।
यह एक चिटठी का मजमून है, जो एक पति अपनी पत्नी को लिखा है। चिटठी लिखने के सबके अपने अपने तरीके थे। जोरु हो, मां, पिता हों बडे भाई, छोटे भाई हों या दोस्त, चिटठी के मजमून में संबोधन और लिखने के तरीके में थोडा सा ही हेरफेर होता था, लेकिन सबका मर्म कमोबेश एक जैसा ही होता था। लगभग हर दूसरी चिटठी में लिखा होता था थोडा लिखना ज्यादा समझना। बहुत व्यापक होता था इन चार शब्दों का अर्थ। मुझे याद है उन चिटिठयों में अपनी बातें बाद में, पहले दूसरों की बातें होती थीं। भोजपुरी संगीत साहित्य में चिटठी को लेकर कई गाने लिखे और गाए गए। शारदा सिन्हा का रोई रोई पतिया लिखावे रजमतिया अगर आपने सुना होगा तो इन चिटिठयों की भावना को जरूर समझ रहे होंगे। किस रिश्ते को चिटठी लिखी गई है यही उस चिटठी की संवेदनशीलता का आधार होता था। पत्नी और प्रेयसी की चिटिठयों में दोहा, शेर ओ शायरी की छौंक जरूर होती थी। आज हम उसी रिश्तों में से एक पत्नी को लिखी जाने वाली चिटठी पर बात करते हैं।
गांव में मेरे बडका बाबुजी पोस्टमास्टर और छोटका बाबा डाकबाबू थे। कहने का गरज यह कि हमारे घर में ही डाकखाना था। गांव बहुत बडा था। बहुत लोग नौकरी करने के लिए बाहर रहते थे। इसलिए खूब चिटिठयां आती थीं। जब डाक खुलता था तो बडका बाबुजी उन चिटिठयों पर मुहर मारने के लिए मुझे बुलाते थे। जब मैं डाकखाने वाले कमरे के दरवाजे पर पहुंचता था, तो बडका बाबुजी नाक पर नीचे तक सरक आए गांधी चश्में से झांकते हुए कहते चिटिठयां आ गईं हैं। मेरा काम होता था उन चिटिठयों पर मुहर मारकर छोटका बाबा के यहां पहुंचाना। भले ही छोटका बाबा डाकबाबू थे, लेकिन रिश्ते में थे बडका बाबुजी चाचा। वो कभी डाकखाने में नहीं आते थे। यहां सरकारी पदों पर घर का रिश्ता ज्यादा प्रभावी दिखता था। इसलिए डाक या मनिआर्डर मुझे उन तक पहुंचाना पडता था।
रोज आने वाले डाक में चिटिठयां इतनी होती थीं कि मुझे मुहर मारने में पंद्रह से बीस मिनट का समय लगता था। उन चिटिठयों में बैरंग (बिना डाक टिकट वाले खत) ढेर सारी होती थीं। मुझे बहुत हैरत होती थी कि ये लोग बैरंग चिटिठयां क्यों मंगाते हैं। तब लिफाफा पच्चीस पैसे में मिलता था और बैरंग के लिए चिटठी प्राप्तकर्ता को पचास पैसे डाकबाबू को देने पडते थे।
मैने अपनी उत्सुकता खत्म करने के लिए एक ऐसे ही पावती से पूछ लिया जिसका बेटा उसे बैरंग चिटठी भेजा था। उसका जवाब था कि बैरंग चिटठी के जल्दी मिलने की गारंटी होती है, क्योंकि डाक विभाग को इससे ज्यादा पैसा मिलता है। शायद तब ही हमारी डाक व्यवस्था दुनिया में सबसे बडी और विश्वसनीय डाक व्यवस्था थी, फिर ऐसे जवाब से मुझे ताज्जुब जरूर हुआ था और मेरी उत्सुकता कम भी नहीं हुई थी। वैसे हम सब डाक महकमे की लेटलतीफी को ठीक से जानते हैं। आप भी अखबारों में पढे ही होंगे कि द्वितीय विश्व यु्द्ध में एक सैनिक का भेजा गया खत उसके मरने के बाद उसके बेटे को मिली।
खैर हम लोग पत्नी को भेजी जाने वाली चिटिठयों की बात कर रहे थे। मैं गांव के प्राइमरी स्कूल में तीसरी या चौथी में पढ रहा था। तब तक हिन्दी फर्राटेदार पढने लगा था। चिटठी पाने के बाद अक्सर लोग परदेसी की खैर खबर जानने की जल्दी में मुझसे उसे पढवाया करते थे। हिन्दी में लिखी चिटिठयों का भोजपुरी में तर्जुमा करके भी बताना पडता था। मैने महसूस किया कि चिटठी पढना भी अपने आप में एक कला है। चिटठी के मजमून की तरह उसको सुनने वाले के चेहरे पर कभी हंसी, कभी विषाद तो कभी भगवान से प्रार्थना में हाथ उठते भी देखना पडता था। इसके लिए बहुत धैर्य और चिटठी सुनने वाले के मन माफिक बनना पडता था। उसके साथ ही हंसने रोने का स्वांग भी करना होता था। कभी कभी स्थितियां बहुत गमगीन तो कभी कभी बहुत नाटकीय भी हो जाया करती थीं।
ऐसा ही एक वाकया मुझे आज भी याद है। मैं पांचवी में पढ रहा था। उस दिन सुबह के सात साढे सात का समय रहा होगा। बाजार टोला का पारस बंबई से अपनी पत्नी के लिए चिटठी भेजा था। डाकखाने में चिटठी लेने उसकी मां आ गई। चिटठी खोला तो संवोधन (मेरी प्राणप्यारी) का मतलब मेरी समझ में नहीं आया। जब प्राणप्यारी का मतलब नहीं पता था तो यह बोध होना असंभव था कि अपनी बहू की चिटठी उसकी सास को नहीं सुनना चाहिए। इसलिए अन्य खतों की तरह पारस की पत्नी की चिटठी भी पढना शुरु किया।
चिटठी लाल स्याही से लिखी हुई थी। संबोधन के बाद सबसे पहले एक शेर था ... लिखता हूं खत खून से स्याही मत समझना, मरता हूं तेरी याद में जिन्दा मत समझना। इधर शेर का आखिरी अशआर खत्म हुआ उधर जैसे तूफान खडा हो गया। पारस की मां छाती पीट पीट कर चिल्ला चिल्ला कर रोने लगी। अभी मैं कुछ समझ पाता द्वार पर इधर उधर खडे और अडोस पडोस के लोग वहां दौडकर आ गये। कोई कुएं पर पानी भर रहा हाथ में बाल्टी डोर लिये चला आया, कोई दतुईन कर रहा था तो वह मुंह में दतुईन चबाते चला आया, कोई जानवरों को चारा मिला रहा था तो हाथ में सानी लगे दौडा चला आया। फागू तो कुदाल लेकर नाली बनाने जा रहा था वह कंधे पर फावडा लिये चला आया। सबको लगा कोई अनहोनी हो गई है। हमने देखा है गांव ऐसे मौकों पर संजीदा हो जाता है। अचानक पारस की मां के करूणक्रंदन पर मैं सकते में आ गया। जिसको देखो वह मुझसे ही पूछ रहा था क्या हुआ। कोई पूछ रहा था पारस को कुछ हो गया है क्या, तो कोई बिना कुछ पूछे ही मेरी ओर इस निगाह से देख रहा था कि मैं चिटठी में लिखे उस अशुभ खबर को बताउं, जिसको सुनने के बाद पारस की मां का वह हाल हुआ था।
पारस की मां थी कि अपना क्रंदन जारी रखे हुए थी। मैं अवाक सब देख रहा था। एक चिटठी का क्या असर हो सकता है मेरा पहला अनुभव बहुत ही खराब था। अब पारस की मां अपनी बहू को गाली पे गाली बके जा रही थी। इस कलमुंही के लिए हमारे बाबू अपने रकत से चिटठी लिखे हैं। वैसे मेरा बेटा पहले से ही कमजोर था, अब पता नहीं परदेस में इस मुंहझौसी के खातिर कितना खून निकाला होगा। महेंदर भाई मेरे हाथ से पारस की चिटठी जैसे छीनकर ले लिये। उपर की दो पंक्तियां पढते ही पारस की मां को डांटने लगे। इस चिटठी को तुम क्यों पढवा रही हो। यह तो पारसा बो के लिए है। उसने चिटठी लाल रंग की स्याही से लिखी है खून से नहीं। महेंदर भाई के इतना बोलते ही सबको माजरा समझ में आ गया और सब लोग हंसने लगे।
शनिवार, 20 मार्च 2010
छोटकी इया
जब उधर संसद के बाहर और भीतर महिला आरक्षण बिल पर शोर मच रहा था तो इधर सीताराम चाचा के चौपाल में भी बहुत गर्मागर्म बहस चल रही थी। बिल के पक्ष और प्रतिपक्ष की अपनी अपनी दलीलें थीं। लेकिन मुझे अपनी छोटकी इया की याद बार बार आने लगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि जमाना तेजी से बदल रहा है। जमाने के साथ ही महिलाओं के हालात भी बदल रहे हैं। फिर भी मैं दावे के साथ कहता हूं कि छोटकी इया आज भी गांवों में जिन्दा हैं। कोई विश्लेषण नहीं है बस महिला आरक्षण बिल के संदर्भ में ही छोटकी इया की यादें प्रस्तुत है ...
तीस पैंतीस साल पहले की बात है। सीताराम चाचा के चाचा थे बाबू इंद्रदेव सिंह। हम लोगों के बाबा। बाबा मतलब दादा जी। अदभुत व्यक्तित्व के मालिक। मुंह में एक भी दांत नहीं, लेकिन आवाज इतनी बुलंद कि पूछिये मत। झक सफेद फरसा जैसी मुंछें उनके व्यक्तित्व में चार चांद लगाती थीं। एक पैर से कमजोर थे। बडे कास्तकार थे। उनकी खेती बारी दूर दूर तक फैली थी इसलिए घोडी की सवारी करते थे।
जमींदारों जैसी सोच। मजाल क्या कि कोई बेगार उनके दरवाजे आए और बिना कोई काम किये चला जाए। डोर में बंधा एक घडा था। वह हमेशा पानी से लबालब भरा रहता था। अगर बेगार के लिए कोई काम नहीं होता था, तो कहते घइली (घडे) का पानी गिरा दो और उसमें कुएं से ताजा पानी भरकर रख दो। काम करने वाले को मजदूरी में बाबा खैनी या बीडी देते थे। एक बार मैने पूछ लिया बाबा आप ऐसा क्यों करते हैं, तो उन्होंने बताया कि नतिरम (पोते को प्यार से नतिरम कहते थे) मैं ऐसा इसलिए करता हूं कि वह गांव में जाकर लोगों से यह न कहे कि बाबू के घर कोई काम ही नहीं है।
फिर भी बाबा का मन बहुत कोमल था। उनकी जानकारी में हमारे टोले में कोई भूखा नहीं सो सकता था। शाम को बुद्धन या धर्मदेव (दोनों बाबा के नौकर) की यह जिम्मेदारी थी कि दोनों टोले में जाकर देखें कि किसके आंगन से धूआं नहीं उठ रहा है। इसका मतलब था कि उसके घर खाना नहीं बन रहा है। खाना बनता तो जरूर धुआं उठता। बुद्धन और धर्मदेव की रिपोर्ट के बाद उसके घर के मालिक को बुलाया जाता था और उसके घर के सदस्यों की संख्या के हिसाब से चावल, आटा, आलू दिया जाता था, ताकि वह परिवार भूखा न सो सके।
बाबा के इस बहुआयामी व्यक्तित्व के कारण ही गांव वाले उनको कई नामों से पूकारते थे। कोई फाक साहब कहता था तो कोई गांधी बाबा। हालांकि कि कालांतर में गांधी के अपभ्रंस गान्ही बाबा के नाम से वो ज्यादा मशहूर थे, लेकिन हम यहां उनको गांधी बाबा ही कहेंगे।
गांधी बाबा को अपनी लोकप्रियता बहुत पसंद थी। इसको आगे बढाने के लिए वह हर जतन करने को तैयार बैठे रहते थे। अडोस पडोस के आठ दस गांवों के लोग तो उनको बहुत ठीक से जानते थे। उनके दरवाजे से गुजरने वाले हर दस आदमी में से आठ सलाम बजाते थे। बाकी दो वो लोग होते थे, जो अडोस पडोस के गांवों के रिश्तेदार हुआ करते थे।
बाबा को ऐसे दो लोगों की बेरूखी भी नागवार गुजरती थी। ऐसे लोगों को वो हांक लगाकर बुलाते थे। सबसे पहले उनका परिचय पूछते थे। फिर जल गुड और बीडी खैनी का आमंत्रण देते थे। हर आदमी इस सत्कारचक्र में उलझ ही जाता था। उनका मकसद होता था एक बार सत्कार का मौका लेना। जिस भी मेहमान का एक बार सत्कार हो गया वह जाते समय जरूर सलाम बजाता था। अगर भविष्य में उसे इस राह से गुजरना हुआ तो हर बार वह बाबा के सत्कार का ऋण उतारकर ही जाता था। यानि सलाम बजाना नहीं भूलता था।
बाबा की दो शादियां हुईं थी। बडकी इया (बडी दादी) और छोटकी इया (छोटी दादी) दोनों जीवित थीं। बडकी इया झक गोरी और छोटी थीं तो छोटकी इया सांवली और लंबी। दोनों इया में एक दूसरे के प्रति स्नेह और आदर भाव देखकर लगता था दोनों सहोदर बहनें हैं। सौतन के पारंपरिक और गढे परिभाषा दोनों इया को छू तक नहीं पाए थे। गांधी बाबा की दूसरी शादी इसलिए हुई, क्योंकि बडकी इया से काई संतान नहीं थी। छोटकी इया से पांच बेटियां हुईं।
बाबा का दोनों इया से व्यवहार अलग अलग तरह का था। वो बडकी इया का बहुत सम्मान करते थे। हर छोटे बडे फैसले में उनकी राय लेते थे। लेकिन छोटकी इया को बात बात पर डांटते रहते थे। मुझे याद है कई बार तो इतना नाराज हो जाते थे कि खरहर (द्वार बहारने वाला झाडू) से मारते थे। जब वह खरहर लेकर इया पर हमलावर होते थे तो घर में सन्नाटा पसर जाता था। केवल गाली व उनके डांटने की तेज तेज आवाजें आती और बीच बीच में खरहर पटकने पर झम झम का शोर। लगता ही नहीं था कि उस कमरे में और कोई है। बडकी इया के हस्तक्षेप के तुरंत बाद बाबा अपना आक्रमण रोक देते थे और बिना कुछ बोले द्वार पर चले जाते थे।
यह सब कुछ इतना जल्दी में होता था कि किसी को कभी समझ में नहीं आता कि गांधी बाबा नाराज क्यों थे। जब बाबा द्वार पर चले जाते थे तो छोटकी इया रोना शुरू करती थीं। घर की अन्य औरते उनको घेर कर चुप कराने लगती थीं। उसी में कोई कहता बाबा इया को मार थोडे ही रहे थे, वो तो कोठिला (अनाज रखने के लिए मिटटी का एक बडा पात्र ) पर खरहर पटक रहे थे। इया तो कोठिला के पीछे थीं। इस पर छोटकी इया हंसने लगती थीं और थोडे ही समय पहले का वह तनावपूर्ण माहौल द्वाण में सरस हो जाता था।
छोटकी इया के रोने के पीछे का मनोविज्ञान शायद यह होता था कि वैसे तो सार्वजनिक तौर पर बाबा की नाराजगी का विरोध तो नहीं कर सकती थीं, इसलिए रोकर अपना विरोध प्रकट करती थीं। ऐसा हर हफ़ते दस दिन में होता था और छोटकी इया हर बार ऐसा ही करती थीं।
गांधी बाबा के जीते जी घर के किसी भी बहू को चौखट के बाहर कदम रखने की इजाजत नहीं थी। कोई नई बहू हो या बडकी इया केवल अपने नइहर (मायके) जाते वक्त ही चौखट के बाहर पांव रखती थी। वह भी डोली या बैलगडी में। डोली और बैलगाडी में पर्दा बंधा होता था। हां साल में एक बार जिउतिया के व्रत में नदी नहाने के लिए खिडकी के रास्ते जाने की इजाजत होती थी।
एक बार छोटकी इया घर की बुजुर्ग महिलाओं के साथ नदी नहाने के लिए गईं। सभी महिलाएं घूंघट में ही जाती थीं। नदी से नहाकर लौटते समय छोटकी इया पीछे छूट गईं। घूंघट से उनको आगे चल रही घर की औरतें दिखाई नहीं दीं और वो रास्ता भटक गईं। जब वो तुरहाटोली के नजदीक पहुंचीं तो उनको कालीचरन ने पहचान लिया। उनके पास जाकर पैलगी करने के बाद कालीचरन ने पूछा मलकिन कहां जा रही हैं। छोटकी इया ने भी कालीचरन को पहचान लिया। कालीचरन खेतीबारी में हाथ बंटाता था। उन्होंने घूंघट की ओट से ही धीरे से कहा घर जा रही हूं। कालीचरन ने कहा घर तो आप पीछे छोड आई हैं, चलिये आपको छोड आता हूं। छोटकी इया कालीचरन के साथ घर पहुंचीं। इधर घर में नदी से लौटकर आईं महिलाएं छोटकी इया को लेकर खुसुर फुसुर कर रहीं थीं। किसी में यह हिम्मत नहीं थी कि इसकी सूचना बाबा को दे दें। जब कालीचरन खिडकी के रास्ते छोटकी इया को लेकर आया तब जाकर सबके जान में जान आई।
तीस पैंतीस साल पहले की बात है। सीताराम चाचा के चाचा थे बाबू इंद्रदेव सिंह। हम लोगों के बाबा। बाबा मतलब दादा जी। अदभुत व्यक्तित्व के मालिक। मुंह में एक भी दांत नहीं, लेकिन आवाज इतनी बुलंद कि पूछिये मत। झक सफेद फरसा जैसी मुंछें उनके व्यक्तित्व में चार चांद लगाती थीं। एक पैर से कमजोर थे। बडे कास्तकार थे। उनकी खेती बारी दूर दूर तक फैली थी इसलिए घोडी की सवारी करते थे।
जमींदारों जैसी सोच। मजाल क्या कि कोई बेगार उनके दरवाजे आए और बिना कोई काम किये चला जाए। डोर में बंधा एक घडा था। वह हमेशा पानी से लबालब भरा रहता था। अगर बेगार के लिए कोई काम नहीं होता था, तो कहते घइली (घडे) का पानी गिरा दो और उसमें कुएं से ताजा पानी भरकर रख दो। काम करने वाले को मजदूरी में बाबा खैनी या बीडी देते थे। एक बार मैने पूछ लिया बाबा आप ऐसा क्यों करते हैं, तो उन्होंने बताया कि नतिरम (पोते को प्यार से नतिरम कहते थे) मैं ऐसा इसलिए करता हूं कि वह गांव में जाकर लोगों से यह न कहे कि बाबू के घर कोई काम ही नहीं है।
फिर भी बाबा का मन बहुत कोमल था। उनकी जानकारी में हमारे टोले में कोई भूखा नहीं सो सकता था। शाम को बुद्धन या धर्मदेव (दोनों बाबा के नौकर) की यह जिम्मेदारी थी कि दोनों टोले में जाकर देखें कि किसके आंगन से धूआं नहीं उठ रहा है। इसका मतलब था कि उसके घर खाना नहीं बन रहा है। खाना बनता तो जरूर धुआं उठता। बुद्धन और धर्मदेव की रिपोर्ट के बाद उसके घर के मालिक को बुलाया जाता था और उसके घर के सदस्यों की संख्या के हिसाब से चावल, आटा, आलू दिया जाता था, ताकि वह परिवार भूखा न सो सके।
बाबा के इस बहुआयामी व्यक्तित्व के कारण ही गांव वाले उनको कई नामों से पूकारते थे। कोई फाक साहब कहता था तो कोई गांधी बाबा। हालांकि कि कालांतर में गांधी के अपभ्रंस गान्ही बाबा के नाम से वो ज्यादा मशहूर थे, लेकिन हम यहां उनको गांधी बाबा ही कहेंगे।
गांधी बाबा को अपनी लोकप्रियता बहुत पसंद थी। इसको आगे बढाने के लिए वह हर जतन करने को तैयार बैठे रहते थे। अडोस पडोस के आठ दस गांवों के लोग तो उनको बहुत ठीक से जानते थे। उनके दरवाजे से गुजरने वाले हर दस आदमी में से आठ सलाम बजाते थे। बाकी दो वो लोग होते थे, जो अडोस पडोस के गांवों के रिश्तेदार हुआ करते थे।
बाबा को ऐसे दो लोगों की बेरूखी भी नागवार गुजरती थी। ऐसे लोगों को वो हांक लगाकर बुलाते थे। सबसे पहले उनका परिचय पूछते थे। फिर जल गुड और बीडी खैनी का आमंत्रण देते थे। हर आदमी इस सत्कारचक्र में उलझ ही जाता था। उनका मकसद होता था एक बार सत्कार का मौका लेना। जिस भी मेहमान का एक बार सत्कार हो गया वह जाते समय जरूर सलाम बजाता था। अगर भविष्य में उसे इस राह से गुजरना हुआ तो हर बार वह बाबा के सत्कार का ऋण उतारकर ही जाता था। यानि सलाम बजाना नहीं भूलता था।
बाबा की दो शादियां हुईं थी। बडकी इया (बडी दादी) और छोटकी इया (छोटी दादी) दोनों जीवित थीं। बडकी इया झक गोरी और छोटी थीं तो छोटकी इया सांवली और लंबी। दोनों इया में एक दूसरे के प्रति स्नेह और आदर भाव देखकर लगता था दोनों सहोदर बहनें हैं। सौतन के पारंपरिक और गढे परिभाषा दोनों इया को छू तक नहीं पाए थे। गांधी बाबा की दूसरी शादी इसलिए हुई, क्योंकि बडकी इया से काई संतान नहीं थी। छोटकी इया से पांच बेटियां हुईं।
बाबा का दोनों इया से व्यवहार अलग अलग तरह का था। वो बडकी इया का बहुत सम्मान करते थे। हर छोटे बडे फैसले में उनकी राय लेते थे। लेकिन छोटकी इया को बात बात पर डांटते रहते थे। मुझे याद है कई बार तो इतना नाराज हो जाते थे कि खरहर (द्वार बहारने वाला झाडू) से मारते थे। जब वह खरहर लेकर इया पर हमलावर होते थे तो घर में सन्नाटा पसर जाता था। केवल गाली व उनके डांटने की तेज तेज आवाजें आती और बीच बीच में खरहर पटकने पर झम झम का शोर। लगता ही नहीं था कि उस कमरे में और कोई है। बडकी इया के हस्तक्षेप के तुरंत बाद बाबा अपना आक्रमण रोक देते थे और बिना कुछ बोले द्वार पर चले जाते थे।
यह सब कुछ इतना जल्दी में होता था कि किसी को कभी समझ में नहीं आता कि गांधी बाबा नाराज क्यों थे। जब बाबा द्वार पर चले जाते थे तो छोटकी इया रोना शुरू करती थीं। घर की अन्य औरते उनको घेर कर चुप कराने लगती थीं। उसी में कोई कहता बाबा इया को मार थोडे ही रहे थे, वो तो कोठिला (अनाज रखने के लिए मिटटी का एक बडा पात्र ) पर खरहर पटक रहे थे। इया तो कोठिला के पीछे थीं। इस पर छोटकी इया हंसने लगती थीं और थोडे ही समय पहले का वह तनावपूर्ण माहौल द्वाण में सरस हो जाता था।
छोटकी इया के रोने के पीछे का मनोविज्ञान शायद यह होता था कि वैसे तो सार्वजनिक तौर पर बाबा की नाराजगी का विरोध तो नहीं कर सकती थीं, इसलिए रोकर अपना विरोध प्रकट करती थीं। ऐसा हर हफ़ते दस दिन में होता था और छोटकी इया हर बार ऐसा ही करती थीं।
गांधी बाबा के जीते जी घर के किसी भी बहू को चौखट के बाहर कदम रखने की इजाजत नहीं थी। कोई नई बहू हो या बडकी इया केवल अपने नइहर (मायके) जाते वक्त ही चौखट के बाहर पांव रखती थी। वह भी डोली या बैलगडी में। डोली और बैलगाडी में पर्दा बंधा होता था। हां साल में एक बार जिउतिया के व्रत में नदी नहाने के लिए खिडकी के रास्ते जाने की इजाजत होती थी।
एक बार छोटकी इया घर की बुजुर्ग महिलाओं के साथ नदी नहाने के लिए गईं। सभी महिलाएं घूंघट में ही जाती थीं। नदी से नहाकर लौटते समय छोटकी इया पीछे छूट गईं। घूंघट से उनको आगे चल रही घर की औरतें दिखाई नहीं दीं और वो रास्ता भटक गईं। जब वो तुरहाटोली के नजदीक पहुंचीं तो उनको कालीचरन ने पहचान लिया। उनके पास जाकर पैलगी करने के बाद कालीचरन ने पूछा मलकिन कहां जा रही हैं। छोटकी इया ने भी कालीचरन को पहचान लिया। कालीचरन खेतीबारी में हाथ बंटाता था। उन्होंने घूंघट की ओट से ही धीरे से कहा घर जा रही हूं। कालीचरन ने कहा घर तो आप पीछे छोड आई हैं, चलिये आपको छोड आता हूं। छोटकी इया कालीचरन के साथ घर पहुंचीं। इधर घर में नदी से लौटकर आईं महिलाएं छोटकी इया को लेकर खुसुर फुसुर कर रहीं थीं। किसी में यह हिम्मत नहीं थी कि इसकी सूचना बाबा को दे दें। जब कालीचरन खिडकी के रास्ते छोटकी इया को लेकर आया तब जाकर सबके जान में जान आई।
रविवार, 28 फ़रवरी 2010
सदा आनंद रहे एहि द्वारे
जुम्मन मियां हमारे गांव में गंगा जमुनी तहजीब के जीते जागते, चलते फिरते, बोलते चालते प्रतीक हैं। बाइस हजार की आबादी में जुम्मन खां का इकलौता मुस्लिम परिवार है। ईद हो, मोहर्रम हो, होली हो, दीवाली हो समूचा गांव जुम्मन मियां के साथ ही मनाता है। वैसे तो उनकी ढेर सारी खूबियां हैं, लेकिन उनमें जो सबसे बडी खूबी है और जिसके कारण जवार पथार में वह पहचाने जाते हैं, वह यह है कि जुम्मन खां हमारे गांव के ब्यास हैं। हमारे बलिया और बिहार के पडोसी जिलों में ब्यास उसे कहते हैं, जो गौनिहारों की टीम का नेतृत्व करता है।
उनको रामायण, महाभारत कंठस्थ है। उन्होंने इन दोनों पुराणों की रचना लोकधुनों और फिल्मी धुनों में कर रखी है। उन्होंने किसी भी नामचीन उस्ताद से बाकायदा कोई तालीम नहीं ली है, लेकिन स्वर और लय की उनकी गजब की समझ है। तभी तो आसपास के जिलों के ब्यासों में उनकी बहुत इज्जत है। बताते हैं कि बचपन से ही जुम्मन मियां गौनिहारों की टोली में जाने लगे थे। इसके लिए उनके अब्बा हुजूर ने कई बार कस के ठुकाई की, लेकिन वह कहां मानने वाले थे। गौनिहारों की संगत में बैठते बैठते वह अब इतने बडे ब्यास बन गए।
आज रात में सीताराम चाचा के यहां होरी गाने के लिए गौनिहारों का जुटान है। सुबह से ही बैठने के लिए दरी कालीन का इंतजाम हो रहा है। लल्लू लोहार के यहां से चार चार गैस लाइटें मंगाया गया है। चाचा ने अपनी तीन भैसों का तकरीबन अठारह लीटर दूध गौनिहारों के लिए सुबह ही रखवा लिया। जो चाय पीने का शौकीन है उसे चाय नहीं तो बाकी सबको आज भर भर के दूध दिया जाएगा। यही नहीं गौनिहारों के लिए खैनी, बीडी, सिगरेट और पान का भी इंतजाम है। सुनने में आया है कि चच्ची मालपुआ भी बनवा रही हैं। जब भी सीताराम चाचा के यहां गौनिहारों की बैठकी होती है, खाने खिलाने का खूब इंतजाम रहता है।
अंधेरा होने से पहले ही लल्लू ने गैस लाइटों को जला दिया। जंग भाई ने बलेसर और नारद के साथ गुडडू को यह ताकीद कर रखा है कि इंतजाम में कोई कमी नहीं रह जाए, नहीं तो सीताराम चाचा के कोप से उनको कोई नहीं बचा पाएगा। आठ बजते बजते गौनिहारों और सुनने वालों से उनका दरवाजा भर गया। दरी और जाजिम कम पड गए तो बाकी जगहों पर पुआल डाल दिया गया। गौनिहारों के दल ने पहले ढोलक, झाल, झांझ, हारमोनियम और तासे को बजाकर गीत गवनई का माहौल बनाया। जुम्मन मियां ने सबसे पहले सरस्वती वंदना की और फिर परंपरागत होरी ...शिवशंकर खेले फाग गौरा संग लियो ... से वो ताल जमाया कि जो कभी इन गौनिहारों के साथ गाते नहीं थे वो भी अपने दोनों हाथों को ही झाल के मानिंद बजाकर झूमने लगे।
हमारे यहां होरी दो तरह से गाई जाती है। एक बैठकी होती है, जिसे भोजपुरी संगीत साहित्य में धमार कहते हैं। जुम्मन मियां अपनी मंउली के साथ एक पर एक धमार ... उडेला अबीर गुलाल लाल भइल असमानवा..., रसिया घनश्याम होरी खेले गोपियन से ..., मोरा फुलगेनवा के साध हो आहे आजु श्याम मोहे बगिया लगा द..., अंखिया भइल लाले लाल एक नींद सोवे द बलमुआ... गाकर माहौल को पूरी तरह से होरीमय कर दिया। होरी के इन गानों को सुनकर पता चलता है कि भोजपुरी संगीत कितनी समृद्ध है। गजब का सुर और ताल के आरोह अवरोह के रंग में सभी गौनिहार और सुनने वाले डूब उतरा रहे थे। तभी स्रोता दीर्घा से फरमाइश आई कि ब्यास जी अब झूमर सुनने का मन कर रहा है। एकआध झूमर हो जाए।
धमार और झूमर इन दो विधाओं में ही आमतौर पर हमारे यहां होरी गाई जाती है। हालांकि कई स्वर पंडितों ने ठुमरी में भी होरी को गाकर इस भोजपुरी लोक संगीत को और समृद्ध किया है। खैर झूमर सुनने की सबके अंदर बेताबी देखी जा सकती है। जुम्मन मियां ने झूमर शुरू करने से पहले उसकी भूमिका तैयार करते हुए बोले भाइयों, हमारे किसी भी त्योहार में सबकी भलाई और कल्याण की ही कामना है। हर दरवाजे जाकर ... सदा आनंद रहे एहि द्वारे मोहन खेले होरी ... भी इसी तरह की एक कामना है।
अब तो होरी के इस मनभावन त्योहार को भी जाति, धर्म के खांचे में रखकर देखा जाने लगा है। पर्व तो पर्व होते हैं, उनको जातिगत या सांप्रदायिक आग में डालने का नुकसान किसको होता है। कभी आपने विचार किया है कि इस आग में किसका घर जलता है, सुधी स्रोताओं इस आग में उन लोगों का ही घर जलता है जिनके घर झोंपडी के होते हैं। कुछ लोगों द्वारा हमारे सौहार्द की राह में डाले गए कांटे उनको चुभते हैं जिनके पैरों में जूते चप्पल नहीं होते। इसलिए मेरे भाइयों अपने पर्वो को सांप्रदायिक और जाति के खांचे में कुछ सिरफिरों के डालने की कोशिशों को नाकाम कर दें। जुम्मन खां के इतना बोलते ही चारो तरफ से तालियों की गुंज सुनाई देने लगी। जुम्मन मियां अपने प्रति अपने गांव वालों के इस प्यार को देखकर अभिभूत हुए बिना नहीं रह सके। और फिर झूमर ... सदा आनंद रहे एहि द्वारे मोहन खेले होरी ... गाकर ऐसी समां बाधी कि कुछ लोग तो भीड में ही खडा होकर नाचने लगे।
रविवार, 21 फ़रवरी 2010
अखबारवाला
कल भोर में ही कानपुर लौट जाना है। इसलिए मामा से मिलने की आकुलता लगातार बढती ही जा रही है। क्योंकि गांव में शायद मैं ही इकलौता हूं, जो मामा का स्नेहपात्र हूं। ऐसा मेरे बचपन से ही है। सीताराम चाचा ने एक दिन मुझे बुलाकर अकेले में समझाया कि तुम उसको और बच्चों की तरह मामा मत कहना। तब से मैं मामा को कभी मामा कहकर नहीं बुलाता था। उनको अमीन साहब कहकर बुलाता था। जैसे किसी सिपाही को दीवान जी या किसी लेक्चरार को प्रोफेसर साहब कहने पर उसके अंदर जिस खुशी की अनुभूति होती है, कहीं उससे अधिक मामा को जब जब मैं अमीन साहब कहकर पुकारता था, तो उनकी बांछें खिल जाया करती थीं। इसके कई फायदे थे। भीड में भी मामा मेरी बातों को तरजीह देते थे और साथ में गांव के अन्य बच्चों से अलग और सुशील होने का तमगा भी।
कल सुबह मुलाकात हो या न हो, इसलिए आज रात में ही मामा से मिलने सीताराम चाचा के दरवाजे पहुंच गया। वहां देखा मामा नारद नाई की हजामत उल्टे उस्तरे से बना रहे थे। मामा बोले, कहते हैं कि पंछियों में कउवा (कौवा ) और आदमी में नउवा (नाई) बहुत चतुर सुजान होते हैं। लेकिन मेरा मानना है कि ये दोनों जीव चतुर तो होते हैं, लेकिन धूर्त किस्म के चालाक होते हैं। नारद ने मामा के इस तर्क का प्रतिवाद किया। आप तो हर बात में अपनी सुविधा के हिसाब से तर्क और परिभाषा गढते हैं। ऐसा केवल मेरा मानना नहीं है, बल्कि यह विचार समूचे गांव का है। मामा कहां चुप रहने वाले थे। बोले, तुमको कब से यह गलतफहमी हो गई कि गांव वालों ने तुमको अपना भोंपा (प्रवक्ता) नियुक्त कर दिया है। तुम बोलो तो मान लिया जाए कि समूचा गांव बोल रहा है और तुम चुप रहो तो यह समझा जाए कि पूरे गांव ने अपनी जुबान पर ताला जड लिया है।
नारद का तीर निशाने पर लगा था। उसने मन ही मन सोचा लोहा गर्म हो गया है, क्यों न हथौडा मार दिया जाए। नारद थोडा और उत्साहित होकर लेकिन धीमी आवाज में बोला, मामा आप तो खामखा नाराज होने लगे। अच्छा चलिए, एक सवाल है मेरा, बोलिए जवाब देंगे। मामा ने कहा हां हां पूछो। सोच लीजिए सवाल बहुत टेढा है। अरे तुम पूछो तो, बडे बडों की हिम्मत नहीं होती हमसे सवाल पूछने की, तुम अगर पूछना ही चाहते हो तो तुम्हारा स्वागत है। मामा फिर मैं कह रहा हूं सोच लीजिए, सवाल बहुत टेढा है। तुम तो ऐसे धमका रहे हो जैसे विद्योतमा कालिदास से सवाल पूछने वाली हों। मामा मैं अदना सा कम पढा लिखा गंवार आदमी। मुझे नहीं पता कि विद्योतमा और कालिदास कौन थे, लेकिन फिर एक बार कह रहा हूं मेरे सवाल का जवाब देना आपके लिए आसान नहीं होगा, सोच लीजिए। अरे जाओ, जब मेरे सामने दारोगा हाथ जोडकर खडा हो गया तो तुम किस खेत की मूली हो। अपना सवाल पूछो।
अच्छा मामा, यह बताइए इतिहास में ऐसा कौन सा मामा है जिसकी लोग इज्जत से नाम लेते हैं। रावण का मामा मारीचि, सीता का अपहरण कराने का दोषी था। शकुनी मामा, द्रौपदी का चीरहरण कराकर महाभारत की नींव रख दिया। कंस मामा, जिसने अपनी बहन और बहनोई (जीजा) को जेल में डाल अपने भांजे (कृष्ण) के ही खून का प्यासा बना रहा। माहिल मामा जिसके कारण आल्हा उदल को अपने भाइयों का संहार करना पडा।
नारद एक एक उदाहरण रखता जा रहा था और उधर मामा की त्योंरियां चढती जा रही थीं। इधर नारद चुप हुआ उधर मामा ने गुस्सैल सांड जैसे नथुने फुलाते हुए बोले कि एक तो नाई और उपर से बाप ने नारद नाम रख दिया। एक तो करैला दूसरे नीम चढा। तुम्हारे सवाल का यही जवाब है, दूसरा कोई जवाब नहीं है। सीताराम चाचा की ओर इशारा करते हुए, यही हैं कि तुम लोगों को अपने सिर पर चढाए रखते हैं। मेरा चले तो तुम लोगों को मुंह न लगाउं।
चाचा समझ गए अब हस्तक्षेप नहीं किया तो बात बिगड जाएगी। इस चोंचलेबाजी की दिशा बदलते हुए चाचा सीधे मुझसे मुखातिब होते हुए बोले, तुम कब आई कानपुर से। मामा नारद संवाद में लोग इतने मशगूल थे कि किसी को भी मेरे वहां होने की सुधि नहीं थी। मैं जहां जाकर धीरे से बैठ गया वहां चाचा के लालाटेन की रोशनी भी कम पड रही थी, लेकिन शायद सीताराम चाचा ने देख लिया था। चाचा के पूछते ही वहां बैठे बीजी पंडित, बलेसर और जुम्मन मियां की मुझसे एक शिकायत थी। सबका यही कहना था कि भइया आप तो गांव को ही भूल गए हो। साल सालभर में आते हो। तीज त्योहार में भी नहीं आते। लेकिन मैं दावे के साथ यह कह सकता हूं कि मामा ने जब मुझे देखा तो थोडी देर पहले का आग भभूका उनका चेहरा खुशी से खिल उठा था। मुझे लगा इस तनावपूर्ण स्थिति में अचानक मेरा वहां प्रकट होना उनको सुकून दे रहा था। मैने मामा का अभिवादन किया। उन्होंने आशिर्वाद में अपना दोनों हाथ उठाया। उनके चेहरे पर ऐसा स्नेहिल मुस्कान तिर रहा था मानो उनके पास जितना भी स्नेह है वह सारा स्नेह मुझे दे रहे हैं।
मामा तो मामा हैं। उनका स्वाभाविक गुण तो सामने वाले को चिकोटी काटना ही है। हमें जैसे इसकी कल्पना नहीं करनी चाहिए कि आदमी सांस लेना छोड दे, सांप विष त्याग दे या ज्वालामुखी आग और लावा उगलना छोड दे वैसे ही मामा टांग खिंचाई छोड दें, इसकी भी कल्पना नहीं करनी चाहिए। हम दोनों बहुत दिन बाद मिल रहे थे, सो मामा यह जताने लगे कि वो मुझे जानते ही नहीं हैं। मामा ने वहां बैठे लोगों से पूछा, इ भाई साहब कौन हैं। किसके घर के मेहमान हैं । मुझे यह समझने में तनिक भी देरी नहीं हुई कि नारद के बाद अब मेरी बारी है। हां यह भरोसा था कि नारद जितना तल्ख नहीं होगा हमला। क्योंकि मामा ने गांव के लोगों को अनेक कटैगरी में श्रेणीबद्ध कर रखा है। इसको सूचिबद्ध करने के उनके पैमाने हैं। मैं मामा की नजर में जिस कटैगरी का मानद सदस्य हूं उसमें ज्यादा तल्खी की गुंजाइश नहीं है। मैने दोनों हाथ जोडकर कहा, अमीन साहब मैं मनोरंजन। अच्छा अच्छा वही अखबार वाला। मामा से आज तक जो अखबारवाला अक्सर मिलता है, वह है सीताराम चाचा को रोज अखबार पहुंचाने वाला हाकर। मामा का मानना है कि अखबार के लिए काम करने वाला हर आदमी अखबार बेचता है। क्योंकि कई बार मुझसे पूछ चुके हैं कि अखबार बेचकर कितनी आमदनी हो जाती है। मैने सोचा अखबारवालों के बारे में मामा के इस धारणा को बदला जाए। इससे हम टांग खिचाई से बच जाएंगे और मामा थोडा अपडेट भी हो जाएंगे। इसलिए उनको अखबार के एक एक काम को तफ़सील से बताया। उन्हें यह भी बताया कि इस बडी इंडस्टी में हम क्या काम करते हैं। हमने यह भी बताया कि देर रात तक जागकर आपके लिए यह अखबार तैयार करते हैं।
ऐसा लगा कि मामा को इस नई जानकारी से कुछ लेना देना नहीं हैं। उन्होंने कहा, बेटवा इससे तो बढिया है गांव आकर रहो। बुजुर्गों की अर्जित की हुई इतनी जमीन है। खेती बारी करोगे तो जितना पाते हो उससे अधिक पैदा करोगे। कम से कम रात में समय से सो तो सकोगे। भगवान दिन बनाया है जगने के लिए रात सोने के लिए। तुम तो भगवान के इस अनुशासन को रोज ही तोडते हो। न तो अपने चैन से सोते हो और न तो बाल बच्चों को चैन से सोने देते हो।
मामा का सुझाव कितना सही है या कितना गलत इसे हम आप पर छोडते हैं, लेकिन इस बातचीत में मुझे विनय बिहारी भाई की याद आ गई। वह कोलकाता जनसत्ता में काम करते हैं। उनके घर जो दाई (कामवाली) आती है उसने एक दिन विनय भाई की पत्नी से कहा, मेमसाहब साहब को किसी अच्छे डॉक्टर से क्यों नहीं दिखातीं। दाई के इस सुझाव पर भाभी ने पूछा, साहब को डॉक्टर को क्यों दिखाउं। उनको क्या हुआ है। दाई ने कहा, लगभग तीन साल हो गए आपके घर काम करते हुए। जबसे मैं आ रही हूं, देखती हूं साहब बेड पर ही पडे हुए हैं। इतने दिनों से कोई बेड पर पडा हो तो गंभीर रोग का ही तो मरीज होगा। भाभी दाई की बात पर हंसते हुए बताई कि साहब अखबार में काम करते हैं। देर रात घर आते हैं तो देर तक सोते हैं। जब तुम झाडू पोंछा करके अपने घर जाती हो उसके एक घंटा बाद साहब उठते हैं। संयोग से तीज त्योहार छुटटी रहती है तो उस दिन तुम काम पर नहीं आती हो।
इसके अलावा एक और रोचक कहानी हमारे एक अखबारी मित्र की भी है। उनका एक पांच साल का बेटा है। जब वह चार साल का हुआ तो स्कूल में दाखिल करने के लिए अपने परिवार को गांव से ले आए। जब वो दफ़तर से घर जाते हैं तो बेटा सोते हुए मिलता है। जब वो जगते हैं तो वह स्कूल जा चुका होता है। बेटे का दाखिला महंगे स्कूल में करा दिए सो घर का खर्च बढ गया। जिस अखबार में काम करते हैं वहां ओवरटाइम मिलता है, इसलिए अपने साप्ताहिक अवकाश में भी वह काम करते हैं, ताकि घर का खर्च ठीक से चलता रहे। ऐसे में वह बेटे से मिल नहीं पाते हैं। एक दिन क्या हुआ कि दफ़तर में काम करते समय उनकी तबियत कुछ नासाज हुई तो वह छुटटी लेकर घर आ गए। वाहर से जब वह कॉलबेल बजाए तो उनका बेटा आया और स्टूल लगाकर डोर आई से देखा तो उसे कोई अपरिचित आदमी बाहर खडा दिखा। वह बिना दरवाजा खोले मां के पास पहुंचा और बोला, मां जो आदमी बाहर खडा है उसको मैं नहीं जानता। हां उसका फोटो आपके बेडरूम में लगा है। मां हंसने लगी और बेटे को पुचकारते हुए बताया कि बेटा ऐसा नहीं कहते, वो तुम्हारे पापा हैं। जाओ दरवाजा खोल दो। बेटा दौडा हुआ गया और दरवाजा खोल दिया। हमारे मित्र घर में घुसते ही बेटे को गोद में उठाकर जब अपनी पत्नी के पास पहुंचे तो उनको भाभी ने बेटे की बात बताईं। दोनों हसने लगे।
बुधवार, 17 फ़रवरी 2010
घोंघाबसंत मामा
बहुत दिनों बाद गांव गया था। वहां तमाम नयी बातें जानने और सुनने को मिलीं। उसमें एक बात यह थी कि मामा इन दिनों आए हुए हैं। मामा सरकारी मुलाजिम थे। पिछले चार सालों से रिटायर चल रहे हैं। मामा संग्रह अमीनों के चपरासी थे। संग्रह अमीनों इसलिए कि हमारे गांव के कई अमीन बदले, लेकिन मामा नहीं बदले। उनका सर्किल (क्षेत्र) नहीं बदला। मामा की तहसील भर के संग्रह अमीनों में बडी डिमांड थी।
बाकुडी (छडी) साइकिल की हैंडिल पर लटकाकर चलते थे। उनकी साइकिल लहराते हुए चलती थी। मामा की बाकुडी की भी एक कहानी है। आमतौर पर बुजुर्ग लोग ही बाकुडी लेकर चलते हैं, लेकिन मामा के हाथों में तो जवानी के दिनों में ही बाकुडी आ गई थी। दरअसल मामा की साइकिल की चाल बडी बेढंगी थी। उनको साइकिल चलाने के लिए कम से कम दो मीटर चौडा रास्ता चाहिए। रास्ते में अगर कोई जानवर बैठा है तो दुर्घटना तय है। जो जानवर मोटरसाइकिल को आते देखकर भी चैन से बैठे बैठे जुगाली करते रहते हैं वो मामा की साइकिल को दूर से आते हुए देखते ही उठ खडे हो जाते हैं जैसे अब भूचाल आने वाला हो। मामा जब तक उनके सामने से गुजर नहीं जाते थे ये जानवर उनको कातर नजरों से देखते रहते हैं। कई तो इतने डरे हुए थे कि अपना खूंटा तोडाकर भाग जाते थे। आमतौर पर ये जानवर आवारा भैसा या सांड के आने पर ऐसा करते हैं।
कई कुत्ते भी मामा की साइकिल की चपेट में आकर अपना पैर गंवा चुके थे। जब घायलों की संख्या बढने लगी तो गांव के कुत्तों ने अपनी सुरक्षा के लिए एक उपाय किया। मामा के उत्तर दिशा से गांव में प्रवेश करते ही उत्तर दिशा वाले कुत्ते ऐसी आवाज में चिल्ल पों मचाते थे मानों उन पर किसी का आक्रमण हो गया हो। उनकी इस चिल्ल पों में आक्रामकता नहीं होती। ये कुत्ते तब तक भौंकते रहते जब तक आगे के रास्ते के उनके साथी भौंकने नहीं लगते थे। इतने बडे गांव में मामा के प्रवेश के दो मिनट बाद ही गांव के हर कोने से कुत्तों की आवाजें आने लगती थीं, मानों गांव में चारों ओर से दुश्मन गांव के सैकडों कुत्ते एक साथ घुस आए हों। कहने का गरज यह कि मामा के गांव में घुसते ही दो मिनट के भीतर भयभीत कुत्ते यह सार्वजनिक कर देते कि मामा के साइकिल के दोनों खूनपिपासू पहियों की गांव की धरती पर धमक हो चुकी है। गांव आने वाले लगभग सभी मेहमानों को भी पता होता था कि यह मामला मामा बनाम कुत्तों का है।
हमारे गांव के कुत्तों में आए इस बदलाव के तुरंत बाद मामा को भी अपनी सुरक्षा की चिन्ता सताने लगी। उनको यह आशंका सताने लगी कि उनसे आहत कुत्ते कभी भी उन पर आक्रामक हो सकते हैं। उस समय उनके संग्रह अमीन केदार सिंह हुआ करते थे। गांधी टोपी लगाने वाले केदार सिंह भी एक विचित्र किरदार हैं, उनके बारे में फिर कभी। मामा ने जब अपनी चिन्ता केदार सिंह को बताई तो उनका ही सुझाव था कि एक बाकुडी ले लो। इससे एक पंथ दो काज हो जाएगा। कुत्तों से तो सुरक्षा होगी ही जिस बकायेदार के पास अपनी यह बाकुडी लेकर जाओगे तो वह डर के मारे तकाबी जमा जाएगा। तबसे मामा के हाथ में बाकुडी देखी जा रही है। लोग बताते हैं कि जिस बकायेदार के दरवाजे मामा की साइकिल पहुंच जाए तो क्या मजाल कि वह तकाबी (बकाया) जमा न करे। संग्रह अमीनों की नौकरी उनके रेवेन्यू रिकवरी पर ही चलती है, इसलिए जो भी संग्रह अमीन हमारे गांव के लिए नियुक्त होता था वह मामा को ही अपना चपरासी बना लेता था।
ये अदभुत मामा हैं। ऐसे मामा जिनको मामा कहो तो गाली देते हैं। सीताराम चाचा के साले हैं तो स्वाभाविक रूप से समूचे गांव जवार के लोग उनको मामा ही कहेंगे। सच बताउं तो द्वापर के शकुनी मामा, त्रेता के मारीचि मामा और कलियुग के माहिल मामा के सबसे होनहार वारिस हैं। गांव के एक एक बच्चे को उसके नाम से नहीं उसके पिता के नाम से पहचानते थे। बच्चे उनको देखते ही मामा नमस्ते, मामा नमस्ते कहने लगते थे। लेकिन मामा आशिर्वाद देने की जगह यह कहते हुए निकल जाते थे कि फलाने के बेटा रूको तुम्हारे बाप से तुम्हारी शिकायत करते हैं। कभी कभी बहुत गुस्से में वह उस लडके के पिता के पास भी जाते थे, लेकिन बच्चे के पिता भी मामा कहकर अभिवादन करते तो विचारे बहुत दुखी होकर अपने गंतव्य की ओर यह भुनभुनाते हुए चले जाते थे कि इस गांव के कुएं में ही भांग पडा हुआ है। बेटा तो बेटा वाप भी कम नहीं हैं।
एक दिन इससे भी मजेदार वाकया हुआ। दो लडकों ने देखा कि मामा आ रहे हैं, तो नजदीक आते ही मामा नमस्ते कहकर अभिवादन किया। आश्चर्यजनकरूप से मामा तनिक भी नाराज नहीं हुए उन दोनों के पास साइकिल रोककर पूछे बेटा मेरी दो बहनें थीं। एक रिक्शे वाले के साथ भाग गई और एक ने तांगे वाले से शादी कर ली, बताओ तुम दोनों उसमें से किसके बेटे हो। बच्चे मामा से इस तरह के जवाब की उम्मीद भी नहीं कर रहे थे। सो अवाक मामा का चेहरा देखने लगे। मामा बार बार पूछे जा रहे थे कि बताओ तुम हमारी किस बहन के बेटे हो। उसमें एक लडका कुछ ज्यादा ही शरारती था। उसने कहा, मामा सीताराम चच्ची का, और दोनों लडके ताली पिटते वहां से भाग गए।
हाजिरजवाब ऐसे कि बडे बडे पानी मांगने लगें। लोगों की टांग खिचाई करने में इनको बहुत मजा आता है। जब देखो किसी न किसी की खिचाई करते मिलेंगे। एक बार क्या हुआ कि इलाके का जो दारोगा आया वह बडा ही मजाकिया मिजाज का था। उसने अपने थाना क्षेत्र में एलान कराया कि जो भी आदमी उसको मजाक में हरा देगा, वह उसे अपना गुरु मान लेगा।
गांव के लोग तो पहले से ही मामा की हाजिरजवाबी के कायल थे। इस प्रतियोगिता के लिए मामा से बेहतर कोई दूसरा उम्मीदवार उन्हें नहीं सूझ रहा था। गांव वालों ने यह प्रस्ताव मामा के सामने रखा तो गांव वालों से खार खाए मामा ने उनका प्रस्ताव ही खारिज कर दिया। जुम्मन, बलेसर, नारद और बीजी पंडित भी हजार कोशिश कर मामा को इस प्रतियोगिता के लिए तैयार नहीं कर सके। जुम्मन ने कहा मामा सीताराम चाचा की बात को नहीं टालते, चलो इसके लिए चाचा से बात करते हैं।
गांव के और कुछ लोगों को साथ लेकर चारो चकोरे चाचा के घर पहुंचे। पहुंचते ही जुम्मन मियां ने मामा वाला प्रस्ताव चाचा के समक्ष रख दिया। चाचा इस अटपटे प्रस्ताव को सुन नाराज होने लगे। तुम लोगों को फालतू बातों के अलावा और कुछ नहीं सूझती है क्या। बीजी ने फरमाया, चाचा अगर मामा ने यह प्रतियोगिता जीत लिया तो गांव के लोगों की थाने में इज्जत बढ जाएगी। दारोगा मामा को अपना गुरु मान लेगा। जितने लोग थे उतनी दलीलें थीं। चाचा ने कहा चलो उससे कहती है। उसमें से एक लडका दौडकर मामा को यह कहकर बुला लाया कि आपको सीताराम चाचा बुला रहे हैं। मामा के वहां पहुंचते ही चाचा ने कहा, इस प्रतियोगिता में जाने से कोई बुराई नहीं है। मुझे भरोसा है तुम्हारे सामने दारोगा पानी मांगते दिखेगी। केवल गांव वालों पर अपना कौशल दिखाती हो, तो अब साबित करने का समय आ गयी है कि वाकई तुम्हारे हाजिरजवाबी के आगे कोई दारोगा दारोगी भी नहीं टिकेगी। जब तक वह दारोगा रहेगी थाने में तुम्हारी रौब बढ जाएगी। चाचा का आदेश था, और एक तहसील के चपरासी जैसे छोटे ओहदे वाले मामा के लिए दारोगा से मुकाबला करना बडी बात थी, तो मामा मना भी नहीं कर सकते थे। लिहाजा दारोगा के पास मुकाबले के लिए मामा की विस्तृत जानकारी पेठा दिया गया। दारोगा तो ऐसे जांबाज को खोज ही रहा था, लिहाजा उसने अगले ही दिन सुबह दस बजे का समय मुकर्रर कर दिया।
गांव के लोगों के हुजूम के साथ मामा ठीक दस बजे थाने पहुंचे। दारोगा ने लोगों की भीड देखकर अंदर ही अंदर प्रफुल्लित हो रहा था कि मुकाबला बहुत ही जोरदार होगा। आगे आगे मामा और पीछे पीछे भीड। मामा को आते देखकर ही वह भांप लिया कि यही उनका प्रतिद्वंद्वी है। ज्यों ही मामा अपने दल बल के साथ थाने के प्रवेश द्वार में घुसे दारोगा वहीं से ही चिल्लाकर बोला। सिपाहियों रोको इन लोगों को। ये कौन लोग हैं जो थाने में घुसे चले आ रहे हैं। यह कहते कहते दारोगा भी भीड के नजदीक पहुंच गया। गुस्से में नथुने फुलाते हुए बोला कि यह थाना है, खाला का घर नहीं कि मुंह उठाए चले आ रहे हो। तुम कौन हो भाई भीड लिये थाने में चले आ रहे हो। मामा समझ गए कि दारोगा जानबूझ कर हम लोगों पर रौब गालिब कर रहा है। हुजूर मुझे घोघा बसंत कहते हैं। दारोगा ने कहा, बडा बढिया नाम है आपका। मामा कहां चूकने वाले थे। बोले, अगर मेरा नाम आपको बढिया लगा तो हुजूर यही नाम खुद ले लिया जाए। मामा का इतना कहना था कि दारोगा दोनों हाथ जोडकर मामा से बोला मैं आपसे मुकाबला नहीं कर सकता आज से आप मेरे गुरु हुए। दारोगा ने मामा के साथ गांव वालों की खूब खतिरदारी कर उन्हें विदा कर दिया।
शनिवार, 6 फ़रवरी 2010
गुडडू का स्वयंबर
गुडडू की शादी को लेकर बीजी पंडित का चिन्तित होना लाजिमी है। दोनों भाइयों सीताराम चाचा और जंग बहादुर भाई का अकेला वारिस है गुडडू। (याद दिला दें सीताराम चाचा रिश्ते में बीजी के भाई लगते हैं, लेकिन जगत चाचा की उपाधि से सुशोभित सीताराम चाचा को पंडित भी समूचे गांव वालों की तरह चाचा ही कहते हैं) कुल के इस इकलौते चिराग गुडडू की अगर शादी नहीं हुई तो इस वंश का दीया ही बुझ जाएगा।
जंग भाई और भौजी से तीन बेटियों के बाद तो आंगन में गुडडू की किलकारी गूंजी थी। बहुत दुलार में पला है गुडडू। जब वह हाईस्कूल में था तब उसका पढाई से मन उचट गया। जब वह दो दिन स्कूल नहीं गया तो जंग भाई ने पूछा था कि तुम स्कूल क्यों नहीं जा रहे हो। गुडडू ने पढाई से मन उचटने की बात बताई तो एलान ए जंग हुआ कि चलो नहीं मन है तो पढाई लिखाई छोडो। तुम्हे किस बात की कमी है। कुछ भी नहीं करोगे तो भी राजकुमारों की तरह रहोगे। चाचा ने गुडडू की पढाई छोडने का विरोध किया तो जंग भाई ने यह कहकर चाचा को समझा लिया था कि भईया, हम दोनों के बीच में एक ही तो संतान है। नहीं पढेगा तो क्या हो जाएगा। जीवन भर दूध भात खाएगा हमारा गुडडू। नतीजा यह हुआ कि गुडडू कक्षा 8 पास और 9 फेल है और ताज्जुब तो यह है कि गुडडू को भी इस बात का कोई मलाल नहीं है।
दरभंगा से जब पहली बार तिलकहरू आए थे तो उनकी आव भगत में कोई कमी नहीं की गई थी। हलुआ, गुलाबजामुन और पकौडी चाय से नाश्ता कराने के बाद खाने में भौजी ने खास कचौडी और मालपुआ बनाईं थीं। मेहमानों को भोजन परोसते समय बब्बन भांट की जोरू ने मंगल गीत गाए गए थे। हमारे यहां तिलकहरुओं को खिलाते समय गाली गाने का भी रिवाज है। भौजी ने बब्बन की जोरू को अपने होने वाले समधी के लिए फरमाइशी गाली गवाईं थीं। इसके एवज में होने वाले समधी ने बब्बन बो को 51 रुपये का निछावर भी दिया था।
अब तक तो सबकुछ ठीक चल रहा था। लेकिन भोजनोपरांत लडकी के पिता ने गुडडू के स्कूल का नाम क्या पूछ लिया, सारा खेल ही चौपट हो गया। उन्होंने गुडडू को अपने पास बुलाकर पूछा कि बेटा आपका स्कूल का भी नाम गुडडू ही है या और कुछ। गुडडू ने कहा, नहीं मेरा स्कूल टा नाम टमलाटर है। पढी लिखी और सुघर बेटी के लिए तोतला दामाद कौन पिता पसंद करेगा। दरभंगा वाले यह कहकर विदा हुए कि जल्दी ही पंडित जी से साइत (मुहूर्त) निकलवाकर खबर करेंगे, लेकिन 11 साल हो गए आज तक कोई खबर लेकर नहीं आया। तब से लेकर दो साल पहले तक तिलकहरू आते जाते रहे, लेकिन गुडडू को अपनी बेटी देने को कोई तैयार नहीं हुआ।
अब बीजी ने प्रतिज्ञा कर ली है कि कुछ भी हो वह चाचा को किसी तरह मनाकर गुडडू का पाणिग्रहण संस्कार इस साल जरूर कराएगा। वह इस कुल के चिराग को हर कीमत पर जलाये रखेगा, भले ही आंधी पानी आए इसे बुझने नहीं देगा। एक दिन उसे चाचा अकेले मिल गए। बीजी इस मौके को गंवाना नहीं चाहता था। इसलिए बिना किसी भूमिका के चाचा से पूछ ही लिया। बताइए चाचा गुडडू की शादी कब कर रहे हैं। बिना किसी प्रसंग के बीजी के इस सवाल के बारे में चाचा ने तो कल्पना भी नहीं की थी। पंडित फिर गुडडू की शादी को लेकर बैठ गई। नहीं चाचा इस बार हमको माकूल जवाब चाहिए, क्योंकि यह एक खानदान के खत्म हो जाने जैसे गंभीर मसले से जुडा हुआ सवाल है। क्या बात करती हो पंडित, लडका लडकी में कोई भेद नहीं है। जंग बहादुर की तीन तीन लडकियां हैं। उनके बच्चे हैं। क्या वो सब इस खानदान के चश्मो चिराग नहीं हैं। देखो पंडित हम जंग बहादुर के बच्चों के ताउ हैं। हम उनके मुखिया हैं, पालक हैं सामंत नहीं। परंपराओं को तब तक ही ढोना चाहिए जब तक वह लोगों के लिए छाते का काम करे। किसी भी क्रूर और अधिनायकवादी परंपरा को नकार देना चाहिए। हमारे लिए चारो बच्चे बराबर हैं। हमारे लिए गुडडू और उसकी तीन बहनों में कोई अंतर नहीं है। तुमको पता नहीं है क्या कि नेहरू परिवार किससे चल रही है। अरे घोघाबसंत इंदिरा से। जहां तक गुडडू की शादी की बात है तो उसकी शादी होनी चाहिए। हम भी चाहती है कि घर में एक बहू आए। लेकिन क्या करें, कोई लडकी वाला तैयार ही नहीं हो रही है। सीता और द्रौपदी की तरह लडकी होती तो उसका स्वयंवर भी कर लेती। आसपास के दस बीस गांवों में न्योता पेठाती, लेकिन इसका हम क्या करें, स्वयंवर भी तो नहीं कर सकते।
बस बीजी को तो इसी समय का इंतजार था। चाचा नारद बता रहा था कि सिसवन (बिहार का एक गांव) में लुकराधी सिंह की एक बेटी है। वह एक आंख से भैंगी है। गुडडू की तरह उसकी भी कई शादियां तय होने के बाद कट गई। वह 27 साल की हो गई है। अपने गुडडू से चार साल छोटी है। जोडी एकदम फीट बनेगी। आप कहते तो नारद से लुकराधी बाबू के यहां संदेशा पेठवा देता। चाचा ने बहुत जोर से ठहाका लगाया ओर बोले लुकराधी की बेटी है तो भैंगी ही होगी। (भोजपुरी का शब्द है लुकराधी। इसका मतलब होता है खुराफाती) खैर लुकराधी बाबू को भी यह रिश्ता पसंद आया।
शादी का दिन तय हो। जंग भाई के पांव जमीन पर पड ही नहीं रहे थे। बारात का न्योता आसपास के 20 गांवों में भेजा गया। अंग्रेजी बाजा के अलावा गोडउ (हुरका), पखावज, डफरा और ढोल ताशे वालों को भी बुलाया गया था। घुडदौड के लिए घोडा, हाथी और उंट का भी इंतजाम था। रात के लिए गनेश भांड की नौटंकी पार्टी को पूरे 16 हजार देकर लाया गया था। चाचा कोई कसर नहीं छोडना चाहते थे। लेकिन लोगों की उत्सुकता इस शानदार बारात से अधिक दुल्हा और दुल्हन को लेकर थी। नारद नाई के लिए चाचा ने खास पीले रंग की धोती और सिल्क का कुर्ता सिलवाया था। जब मडवे में वैवाहिक संस्कार चल रहा था, तब बधू पक्ष का नाई नारद को बातों का चिकोटी काट रहा था। जब वर वधू ने सात फेरे पूरे किये तो लडकी पक्ष के नाई ने नारद की ओर मुखातिब होकर कहा, ठाकुर जी भैंगी ने वर जीत लिया, उसके लगातार शब्दवाणों से परेशान नारद ने कहा, ठीक कहा भइया, लेकिन वर बोले तो जानूं।
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